नाभी चिकित्सा भाग-2
नाभी चिकित्सा का उल्लेख विश्व
की कई वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों एंव कई परम्परागत उपचार विधियों में देखने
को मिल जाती है ,परन्तु इस सरल सुलभ उपचार विधि के परिणामों से जन समान्य
अनभिज्ञ है इसका मूल कारण यह है कि इस चिकित्सा पद्धति के जानकारो ने इस धन व यश
कमाने के लिये अपने तक ही सीमित रखा, उनके बाद यह पद्धति धीरे धीरे उनके साथ लुप्त
होती गयी । नाभी चिकित्सा या उपचार पद्धति के लुप्त होने के पीछे आधुनिक चिकित्सा
विज्ञान का भी बहुत बडा हाथ है, जिन्होने इस प्रकृतिक उपचार विधि को अवैज्ञानिक
एंव तर्कहीन कह कर, इसकी उपेक्षा ही नही की बल्की इसके विकास क्रम को ही अवरूध कर
दिया , इसके पीछे मुख्य धारा से जुडी चिकित्सा पद्धतियों का व्यवसायीक दृष्टीकोण
प्रबल था, जो इस जैसी सरल सुलभ तथा आशानुरूप परिणाम देने वाली उपचार विधि को
हासिये में ला खडा कर दिया । चिकित्सा जैसा पुनित कार्य व्यवसायीक प्रतिस्पृधा के भॅवरजाल में ऐसा
फॅसता चला गया कि सस्ती सुलभ प्रकृतिक उपचार विधियॉ धीरे धीरे लुप्त होती चली
गयी । इसीका परिणाम है कि आज नाभी जैसी सरल सुलभ तथा आशानुरूप परिणाम देने वाली
उपचार विधि से जन सामान्य अपरिचित है विश्व के हर कोने में नाभी चिकित्सा उपचार
विधि किसी न किसी नामों से अभी भी प्रचलन में है एंव अपने आशानुरूप परिणामों की
वजह से एंव मुख्य धारा कि चिकित्सा पद्धतियों के विरोध के बाबजूद अपना अस्तीत्व
बनाये हुऐ है । नाभी चिकित्सा का उल्लेख हमारे
प्राचीन आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में देखा जा सकता है समुद्रशास्त्र एंव
ज्योतिष विद्याओं में भी नाभी उपचार का उल्लेख है । अत: हम कह सकते है कि नाभी
चिकित्सा हमारे भारतवर्ष की अमूल्य घरोहर है , जिसे हम न सम्हाल सके , सम्हालना
तो दूर की बात है हमारा पढा लिखा सभ्य समाज इसकी उपेक्षा करते न थकता था वही बौद्ध
भिक्षुओं ने हमारी इस उपचार विधि के महत्व को समक्षा एंव इसे अपने साथ चीन व
जापान ले गये जहॉ यह एक नई उपचार विधि ची नी शॉग के नाम से चीन व जापान मे प्रचलित
हुई । एक्युपंचर एंव एक्युप्रेशर उपचार विधियों के चिकित्सकों ने इसे एक नये
उपचार विधि के रूप में प्रस्तुत किया अत: कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि
नाभी चिकित्सा विश्व की वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों में किसी न किसी रूप में
प्रयोग की जा रही है एव इसके बडे ही अच्छे परिणाम मिल रहे है । नाभी चिकित्सा के
इतिहास को दोहराने की अपेक्षा इसके उपचार महत्व पर प्रकाश डालना उचित होगा ताकि
जन सामान्य इस उपचार विधि का स्वयम उपयोग कर इसके परिणामों से परिचित हो सके ।
आज चिकित्सा जैसा पुनित कार्य एक व्यवसाय बन
चुका है छोटी से छोटी बीमारीयों के उपचार हेतु मुख्यधारा से जुडे चिकित्सक बडे
से बडा परिक्षण लैब टेस्ट कराते है हजारो रूपये खर्च होने के बाद दवाये लिखी जाती
है या उपचार शुरू होता है । जितनी बडी अस्पताल या जितना बडा डॉ0 उतना खर्च । मरीज
भी चिकित्सा एंव उपचार के भंवरजाल में इस तरह से उलझ जाता है कि उसे भी कुछ समक्ष
में नही आता ।
नाभी परिक्षण से रोग की पहचान
नाभी चिकित्सा पद्धति एक सरल,
सुलभ उपचार विधि है , जिस प्रकार आज मुख्यधारों
से जुडी चिकित्सा पद्धतियॉ या अन्य चिकित्सा विधियॉ रोग निदान से पूर्व रोग की
पहचान करने हेतु कई प्रकार की विधियॉ अपनाती है जैसे पैथालाजी ,एक्सरे
,सोनोग्राफी आदि इससे शरीर में कौन सा रोग है यह मालुम हो जाता है । आयुर्वेद जैसी
प्राचीन चिकित्सा में नाडी परिक्षण आदि से रोग की पहचान की जाती है, होम्योपैथिक
उपचार में लक्षणों के आधार पर रोग की स्थिति को पहचान कर उपचार किया जाता है । ठीक
इसी प्रकार नाभी चिकित्सा में भी उपचार से पूर्व शरीर के किस अंग में खराबी है या
कौन सा रोग है पहचाना जाता है नाभी चिकित्सकों
का मानना है कि समस्त प्रकार की बीमारी पेट से प्रारम्भ होती है उनका सिद्धान्त
है कि रस एंव रसायनों की असमानता से समस्त प्रकार के रोग उत्पन्न होते है 1-रस
:- प्राणी जीवन का आधार ही रस है, यानी हमारे शरीर में जो भी तरल रूप मे है
चाहे वह पाचन क्रिया उत्पन्न होने वाले रस, विटामिन, एमिनो एसिड, या फिर विभिन्न
प्रकार के रसायनिक घटक ही क्यो न हो, प्रथमावस्था में ये सभी रस की श्रेणी में
ही आते है, फिर सम्बन्धित अंगों के माध्यम से रक्त व हार्मोन में परिवर्तित होते है जो रस की ,
द्वितिय अवस्था में रसायनिक घटक में परिवर्तिन होते है ।
2-रसायन :-
हम जो कुछ गृहण करते है वह पहले रस में परिवर्तित होता है इसके बाद रसायनिक घटकों
में रसायनिक प्रक्रिया द्वारा परिवर्तित होता है, इसे रसायन कहते है । हार्मोन्स
हो या रक्त में मिश्रित सभी प्रकार के तत्व रसायनिक प्रक्रिया के माध्यम से ही
परिवर्तित होते है ।
अत: नाभी चिकित्स का मूल सिद्धान्त है कि
प्राणीयों की समस्त प्रकार की बीमारीयॉ रस रसायनों की असमानता की वजह से उत्पन्न
होती है । इस चिकित्सा विधि में उपचारकर्ता सर्वप्रथम रस एंव रसायनों को समान्यावस्था
में लाने का प्रयास करता है । उनका मानना है कि रस एंव रसायनों के साम्यावस्था
में आते ही समस्त प्रकार की बीमारीयों का निदान बिना किसी दबा दारू के हो जाता है
।
परन्तु हमारे शरीर के रस
रसायनों के परिवर्तन व प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप जो तत्व पसीने आदि के माध्यम
से शरीर से निकलते रहते है वह नाभी के गहरे भाग में धीरे धीरे जमने लगते है जो मैल
की परत के रूप में देखे जा सकते है इसमें एक विशिष्ट प्रकार की गंध पाई जाती है
यह गंध शरीर के रस रसायनों की विकृति को दृशाती है शरीर में अम्लता एंव क्षारीयता
को इसकी गंध से आसानी से पहचाना जाता है चूंकि शरीर में रस रसायन के परिवर्तन एंव
अम्लीयता तथा क्षारीयता के स्तर की असमानता से कई प्रकार की बीमारीयों का जन्म
होता है । अम्ल एंव क्षार का पी एच-7 होने पर शारीर का रसायनिक संतुलन सही होता
है ,पीएच-7 से अधिक होने पर क्षारीय एंव कम होने पर अम्बली होता है ]
इसके घटने या बढने पर शरीर क्षारीय या अम्बलीय
होने लगता है अम्ल व क्षार की अधिकता या कमी का परिणाम शारीरिक रसायनिक घटकों में
असमानता उत्पन्न तो करती ही है साथ ही अम्बली या क्षारीय माध्यमों में होने
वाले वैक्टरियॉ उत्पन्न होने लगते है इससे वेक्टेरियाजनित बीमारीयों की
संभावनाये बढ जाती है । क्षय रोग अम्लीय रोग फेफडों के रोग व कैसर जैसी बीमारीयों
में शारीर में अम्ल का स्तर बढ जाता है इससे नाभी मे जो गंध होती है अम्बलीय या
खटटी ,इसके मैल की परत को निकाल कर उसे साफ पानी में घोलकर लिटमस पेपर पर डालने पर
लिटमस पेपर का रंग नीला हो जाता है । क्षार के स्तर के अधिक बढने पर कडुवी सी गंध आती है तथा इसकी परत का परिक्षण
करने पर लिटमस पेपर लाल हो जाता है । जानकार नाभी चिकित्सक नाभी पर पाये जाने
वाले इस मैल का परिक्षण विभिन्न विधियों से कर बीमारी का पता आसानी से लगा लेते
है । जैसे यदि नाभी धारी के मध्य पीला
रंग है तो उसे पित्त से सम्बन्धित बीमारीयॉ या फिर पीलियॉ जैसा रोग होगा , ठीक
इसी प्रकार यदि नाभी धारीयों का रंग अत्यन्त लाल है तो उसे रक्त विकार की
शिकायत हो सकती है । नाभी धारीयों के मध्य सफेद रग का होना वात रोग या नसों से
सम्बन्धित बीमारीयों का दृशाता है । नाभी में खटटी गंध आने पर रोगी अपच तथा अम्ल्ा
रोग का शिकार होता है ।
अम्ल क्षार का
संतुलन बिगडना :- इस चिकित्सा पद्धति का
माना है कि शरीर में समस्त प्रकार की बीमारीयों का उत्पन्न होना अम्ल क्षार के
संतुलन की असमानता है हमारे शरीर में दो तरह के तत्व होते है एक अम्ल दुसरा
क्षारीय । यदि इन दोनो का संतुलन बिगड जाये तो हमारे शरीर मे रोग उत्पन्न होने
लगता है शरीर में अम्ल का अधिक होना घातक है
। शरीर में अम्ल की मात्रा अधिक
होने पर कई प्रकार की बीमारीयॉ उत्पन्न जैसे शरीर में र्दद रहना ,पित्त का बढना
,बुखार आना ,चिडचिडाहट , रोग प्रतिरोधक क्षमता का कम हो जाना ,कैसर जैसी घातक
बीमारीयों का मुख्य कारण शरीर में अम्लीयता का बढना है ।
अम्ल :-
अम्ल (एसिड) को मोटे
हिसाब निम्न प्रकार से पहचान सकते है ये
स्वाद में खटटे होते है एंव हल्दी से बनी रोली को नीला कर देती है । अधिकाश
धातुओं पर अभिक्रिया कर हाईड्रोजन गैस उत्पन्न करती है तथा क्षार को उदासीन कर
देती है ।
क्षार:- क्षार (एलकलाईन) उन
पदाथों को कहते है जिनका विलयन चिकना चिकना होता है तथा ये स्वाद में कडुवे होते
है ,हल्दी से बने रोली को लाल कर देते है और अम्लों को उदासीन कर देते है ।
हमारे शरीर में भी दो तरह के तत्व होते है अम्ल हाईडोजन आयन को शरीर में बढादेता
है क्षारीय भोजन हाइडोजन आयन को कम कर देता है जो शरीर के लिये लाभदायक है ।
पी एच-7 :- अम्ल एवं
क्षार की मात्रा को नापने के लिए एक पैमाना तय किया है जिसे पीएच कहते हैं । किसी
पदार्थ मंे अम्ल या क्षार के स्तर को की मानक ईकाइ पीएच है । पीएच को मान 7 से अधिक अर्थात वस्तु क्षारीय है । शुद्ध पानी का पीएच 7 होता है । पीएच बराबर होने पर पाचन व अन्य क्रियाएं सुचारू
रूप से होती है । तभी हमारे शरीर की उपापचय क्रिया सही होती है एवं हारमोन्स सही
कार्य कर पाते हैं एवं उनका सही स्त्राव होता है । तभी शरीर की प्रतिरोध क्षमता
बढ़ती है ।
बढ़ता प्रदूषण, रसायनों का सेवन व तनाव से शरीर में अम्लता की मात्रा बढ़ती है । तभी आजकल रक्त मे पीएच 7.4 से कम हो गया है । 7.4 आदर्श पीएच माना जाता है । इससे उपर पीएच का बढ़ना क्षारीय व इसका 7.4 से कम होना एसीडीक होना बताता है। आजकल हमारा रक्त का पीएच 6 या 6.5 रहता है । इसी से कैंसर जैसी घातक बीमारियां होती है । शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो गई है । शरीर में दर्द इसी से रहता है । पित्त का बढ़ना, बुखार आना, चिढ़ना सब अम्लता बढ़ने से होता है ।
निम्बू, अंगुर आदि फल खट्टे होते हैं लेकिन पाचन पर ये क्षारीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं । इनके अन्तर स्वभाव से नही बल्कि पचने पर जो प्रभाव होता है उसके
बढ़ता प्रदूषण, रसायनों का सेवन व तनाव से शरीर में अम्लता की मात्रा बढ़ती है । तभी आजकल रक्त मे पीएच 7.4 से कम हो गया है । 7.4 आदर्श पीएच माना जाता है । इससे उपर पीएच का बढ़ना क्षारीय व इसका 7.4 से कम होना एसीडीक होना बताता है। आजकल हमारा रक्त का पीएच 6 या 6.5 रहता है । इसी से कैंसर जैसी घातक बीमारियां होती है । शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो गई है । शरीर में दर्द इसी से रहता है । पित्त का बढ़ना, बुखार आना, चिढ़ना सब अम्लता बढ़ने से होता है ।
निम्बू, अंगुर आदि फल खट्टे होते हैं लेकिन पाचन पर ये क्षारीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं । इनके अन्तर स्वभाव से नही बल्कि पचने पर जो प्रभाव होता है उसके
कारण क्षारीय माना जाता है । पाचन पर जो खनिज
तत्व बनाते हैं व सब क्षारीय होते हैं ।
अम्लीय आहार – मनुष्य द्वारा निर्मित आहार प्रायः अम्लीय होता है जिससे एसीडिटी होती है । जैसे तले-भूने पदार्थ, दाल, चावल, कचैरी, सेव, नमकीन, चाय, काॅफी, शराब, तंबाकु, डेयरी उत्पाद, प्रसंस्कृत भोजन, मांस, चीनी, मिठाईयां, नमक, चासनी युक्त फल, गर्म दूध आदि के सेवन से अम्लता बढ़ती है ।
क्षारीय आहार – प्रकृति द्वारा प्रदत आहार (अपक्वाहार) प्रायः क्षारीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं । जैसे ताजे फल, सब्जियां, अंकुरित अनाज, पानी में भीगे किशमिश, अंजीर, धारोष्ण दूध, फलियां, छाछ, नारियल, खजूर तरकारी, सुखे मेवे, आदि पाचन पर क्षारीय हैं ।ज्वारे का रस क्षारीय होता है । यह हमारे शरीर को एल्कलाइन बनाता है । शरीर के द्रव्यों को क्षारीय बनाता है । खाने का सोड़ा क्षारीय बनाता है ।
अम्लीय आहार – मनुष्य द्वारा निर्मित आहार प्रायः अम्लीय होता है जिससे एसीडिटी होती है । जैसे तले-भूने पदार्थ, दाल, चावल, कचैरी, सेव, नमकीन, चाय, काॅफी, शराब, तंबाकु, डेयरी उत्पाद, प्रसंस्कृत भोजन, मांस, चीनी, मिठाईयां, नमक, चासनी युक्त फल, गर्म दूध आदि के सेवन से अम्लता बढ़ती है ।
क्षारीय आहार – प्रकृति द्वारा प्रदत आहार (अपक्वाहार) प्रायः क्षारीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं । जैसे ताजे फल, सब्जियां, अंकुरित अनाज, पानी में भीगे किशमिश, अंजीर, धारोष्ण दूध, फलियां, छाछ, नारियल, खजूर तरकारी, सुखे मेवे, आदि पाचन पर क्षारीय हैं ।ज्वारे का रस क्षारीय होता है । यह हमारे शरीर को एल्कलाइन बनाता है । शरीर के द्रव्यों को क्षारीय बनाता है । खाने का सोड़ा क्षारीय बनाता है ।
बीमारीयों की
पहचान:- नाभी चिकित्सा में बीमारीयों को पहचानने की कई विधियॉ प्रचलन
में है परन्तु मुख्य रूप से निम्न परिक्षण मूल रूप से किये जाते है ।
1- स्पर्श
परिक्षण :- इस में मरीज के शरीर का स्पर्श परिक्षण किया जाता है जिससे शरीर
का तापक्रम मालुम होता है , नाडी परिक्षण , दृष्टि परिक्षण मरीज को देखकर ,ऑखों का
परिक्षण , जीभ तथा मल मूत्र का परिक्षण जो सामान्यत: उनके रंग गंध आदि से पहचाना
जाता है ।
2- नाभी
परिक्षण :- नाभी चिकित्सा में रोग को पहचान ने के लिये मूल परिक्षण है,
नाभी परिक्षण, चूंकि नाभि चिकित्सकों का मानना है कि मनुष्य के समस्त प्रकार के
रोगों का परिक्षण मात्र नाभी की बनावट उसकी धारीयों एंव नाभी स्पंदन से आसानी से
पहचाना जा सकता है ।
नाभी चिकित्सा में सर्वप्रथम
नाभी की बनावट उसके आकार प्रकार एंव उसकी
स्थिति से रोग की पहचान की जाती है ।
3-अम्ल
क्षार परिक्षण :- इस परिक्षण से यह ज्ञात हो जाता है कि रोगी के शरीर में अम्ल
व क्षारीयता की क्या स्थिति है जो रोग का मूल कारण है । यह परिक्षण उन रोगीयों पर
ही किया जा सकता है जिसकी नाभी गहरी होती है एंव उसके अन्दर मैल की परत हो तथा
उसमें से गंध आती हो । इसका मूल कारण यह है कि हमारे शरीर से निकलने वाले पसीन से
शरीर के वे तत्व रस या रसायन की मात्राये निरंतर निकलती रहती है चूंकि शरीर में
नाभी मात्र एक ऐसा अंग है जहॉ पर पसीना असानी से रूक जाता है एंव सूखने पर वह मैल
की परत के रूप में शरीर से चिपका रहता है ,शरीर के तापक्रम एंव निरंतर सम्पर्क की
वहज से जो तत्व शरीर से निकलते रहते है वह उचित परिणाम में सुरक्षित रहते है इससे
कभी कभी नाभी में वैक्टेरिया भी पलने लगते है ये वेक्टेरिया शरीर को किसी भी
प्रकार का नुकसान नही पहूचाते बल्की शरीर की सुरक्षा करते है इस मैल से एंव वैक्टेरिया
से शरीर की अम्ल एंव क्षारीयता की स्थिति का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है
जैसे गंध से यदि गंध खटटी है तो अम्ल एंव यदि गंध कडुवी या कसैली है तो क्षारीय ।
लिटमस या हल्दी परिक्षण :- गहरी
नाभी के मरीज की अम्ल क्षारीयता का पता लगाने के लिये उसकी नाभी पर पहले शुद्ध
पानी डाले फिर उसके अंदर के मैल को किसी साफ वस्तु से इस प्रकार धोले ताकि अन्दर
के मैल की परत उसमे अच्छी तरह से धुल जाये इसके बाद उसके अन्दर हल्दी से बनी
रोली डाल दे यदि वह लाल हो जाये तो समक्षे शरीर क्षारीय है एंव यदि वह पीली हो
जाये तो समक्षे शरीर में अम्ल की मात्रा बढ रही है जो घातक है ।
हल्दी की रोली की जगह आप चाहे
तो लिटमस पेपर को डाल कर भी यह परिक्षण आसानी से कर सकते है ।
पर हल्दी शरीर से निकलने वाले
इस तत्व में अम्ल व क्षार यह सूखा हुआ को कर
(अ):- नाभी
की स्थिति :-यदि नाभी की स्थिति शरीर के मध्य में है तो ऐसा व्यक्ति
निरोगी होता है । यदि नाभी मध्य में न होकर कुछ नीचे को है तो ऐसे व्यक्तियों को
पेट के नीचे पाये जाने वाले अंगों से सम्बन्धित बीमारीयॉ अधिक होती है । ऊपर की
तरुफ है तो उसे पेट के उपर पाये जाने वाले अंगों से सम्बन्धित बीमारीयॉ होती है ।
यदि नाभी की स्थिति बिलकुल मध्य
में न होकर दायी तरुफ होती है तो ऐसे मरीजो को पेट पर पाये जाने वाले दॉये अंग से
सम्बन्धित रोग हो सकता है ठीक इसी प्रकार यदि बॉये तरुफ है तो बॉये अंग से सम्बन्धित
बीमारीयॉ हो सकती है ।
उपरोक्त स्थिति का अध्ययन पेट
पर पाये जाने वाले वृत के अध्ययन से किया जा सकता है का आकार
(ब) नाभी की
बनावट :-हर व्यक्तियों की नाभी की बनावट अलग अलग होती है यहॉ तक की
जुडवा संतानों के शरीर की बनावट भले एक सी हो परन्तु उनके नाभी का आकार प्रकार व
बनावट अलग अलग होगी ,ठीक उसी प्रकार से जैसे हाथों की रेखाये हर व्यक्तियों की
अलग अलग होती है । नाभी के आकार प्रकार एंव बनावट से नाभी चिकित्सक रोग की पहचान
करते है ।
यदि नाभी ऊपर को डण्टल की तरह
से उठी हुई है तो ऐसे व्यक्तियों को गैसे अपच आदि की शिकायत हो सकती है । अन्दर
को धॅसी हुई गहरी नाभी इस प्रकार के रोगी को स्वस्थ्य माना जाता है परन्त उक्त
दोना बनावट के साथ अन्य स्थितियों जैसे धारीयों की बनावट एंव नाभी के आकार को भी
आधार माना जाता है ।
(स)नाभी धारीयॉ या रेखा:- इसमें नाभी धारीयॉ एंव नाभी बनावट मुख्य रूप से है जैसे नाभी की बनावट
में यदि नाभी का आकार जिस ओर होता है उस तरुफ के अंग रोगग्रस्त होते है इसी
प्रकार नाभी धारीयॉ की स्थिति का भी पता लगाया जाता है जैसे नाभी धारी या जिसे
नाभी रेखा भी कहते है । यदि नाभी धारी की बनावट या स्थिति जिस ओर इसारा करती है
उसी तरुफ के अंगों से सम्बन्धित रोग होता है । यह बडी ही सरल विधि है । परन्तु
इसे बारीकी से समक्षना चाहिये तभी रोग का परिक्षण का परिणाम उचित होगा । इस
परिक्षण हेतु नाभी वृत परिक्षण चार्ट को देखिये ।
(द) नाभी धारीयों का रंग :- नाभी धारीयों के मध्य रंग व गंध पाई जाती
है , दक्ष नाभी चिकित्सा रोगों की पहचान नाभी धारीयों के रंग व गंध से आसानी से
कर लेता था । नाभी के अन्दर से गंध का रोग पहचान में बडा महत्व है चूंकि जैसा कि
आप सभी इस बात को अच्छी तरह से जानते है कि नाभी ही एक ऐसा अंग है जिसमें शरीर से
निकलने वाला पसीना या व्यर्थ पदार्थ आसानी से कई कई दिनों तक छिपे रहते है यहॉ तक
की कई व्यक्तियों की नाभी में जो पदार्थ छिपे रहते है वह उनके जन्म के समय से ही
छिपे रहते है फिर शरीर के तापमान आदि की वहज से उसमें ऐसे वेक्टेरिया पनपने लगते
है जो शरीर के रक्षक होते है इन वेक्टेरिया से शरीर को नुकसान नही होता ।
नाभी परिक्षण की स्थितिया :-नाभी
का परिक्षण खाली पेट सुबह करना चाहिये । नाभी परिक्षण से पूर्व यदि नाभी टली है तो
इसकी जानकारी हेतु रोगी के हाथों को आपस में इस प्रकार से मिलाये कि हाथेली पर जो
रेखाये है उसे मिलाने पर यदि हाथ की दोनों अंगुलियॉ समान है तो नाभी यथास्थान है
परन्तु यदि नाभि टली है तो यह अंगुलियों की साईज में अंतर होगा । इसी प्रकार रोगी
को जमीन पर सीधा लिटा दीजिये इसके बाद उसकी नाभी से दोनों निप्पल की दूरियों को
नापिये यदि ये दोनो बराबर है तो नाभी यथा स्थान है यदि इनकी दूरियों में अन्तर
है तो नाभी टली हुई होगी । इसी प्रकार रोगी के पैरो के अंगूठे को मिलाने पर भी यह
स्थिति मालुम की जा सकती है । नाभी परिक्षण की आर्दश स्थितियॉ निम्नानुसार है ।
1-रोगी को सीधा लिटा दीजिये इसके बाद
उसे कहिये कि वह पेट को सामान्य स्थिति में रखे अपने हाथों की तीन अंगुलि क्रमश:
तर्जनी मध्यमा एंव अनामिका अंगुलियों को आडी रेखा में रखे इसके बाद धीरे धीरे
दबाब देते हुऐ नाभी के स्पंदन को मालुम करे । चूंकि नाभी पर यह स्पंदन कुछ लोगों
में बडी मुश्किल से मिलता है कुछ लोगों में प्रथम स्तिरीय दबाब में मालुम हो जाता
है तो कुछ लोगों में यह तृतिय स्तिरीय दबाब देने पर एंव रोगी के श्वास पर
नियत्रंण से मालूम होती है ऐसा प्राय: जब होता है जब यह रोग काफी पुराना हो जाता
है ।
1-
प्रथम स्तिरीय दबाब:- रोगी को सीधा लिटाने के बाद अपनी तीनों
अंगूलियों से धीमें से दबाब दिया जाता है इसे प्रथम स्तिरीय दबाब कहते है ।
2-
द्वितिय स्तिरीय दबाब :- यह दबाब प्रथम स्तिरीय दबाब से अधिक
होता है इस दबाब को मध्यमा दबाब भी कहते है ।
3-
तृतिय स्तिरीय दबाब :- यह दबाब उक्त दोनों दबाब से अधिक होता
है बल्की इस दबाब में कभी कभी मरीज के पेट पर अत्याधिक दबाब की वहज से वह
परेशानी अनुभव करने लगता है तथा आप की अंगुलियों में उसके पेट के अन्दर के भाग
महशूस होने लगते है ।
4-
श्वास पर नियंत्रण :- नाभी परिक्षण करते समय या दबाब देते समय
मरीज से कहे वह अपने श्वास को कुछ देर के लिये रोके रहे ऐसा करने से नाभी का स्पंदन
स्पष्ट अंगुलियों पर महसूस होने लगता है ।
5-
लेटरल पोजिशन :- जिस प्रकार आप ने मरीज को सीधे लिटा कर उसकी
नाभी का परिक्षण किया था अब आप को उसे आडी स्थिति में पहले दॉयी तरफ फिर बाई करवट
लेने को कहे फिर उपर बतलाई गयी विधि से परिक्षण करे ।
6-
सीधे बैठाल कर तृतिय स्तिरीय परिक्षण :- इस स्थिति में मरीज को
किसी कुर्सी आदि में शांन्त मुद्रा में बिठा कर उसकी नाभी का उपरोक्त प्रथम
द्वतिय तथा तृतिय स्तिरीय परिक्षण करते है ।
7-
अन्तिम परिक्षण में मरीज को सीधे खडा कर उसकी नाभी का उपरोक्तानुसार
परिक्षण करते है परन्तु तृतिय परिक्षण में उसे श्वास रोकने को कहे एंव यह अंतिम
परिक्षण है जिसमें उपरोक्त परिक्षणों में नाभी का स्पिंदन जिस ओर मिलता है उसकी
स्थिति बिलकुल स्पष्ट हो जाती है । उक्त सात स्थितियों के परिक्षण से नाभी की
गलत स्थिति की संभावना नही होती । यह परिक्षण इस लिये भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हो
जाता है कि (इसे कनफरमेशन टेस्ट कहते है) इसमे नाभी स्पंदन के जो परिणाम लिये जा
रहे है उसमें कभी कभी नाभी स्पंदन की स्थितियॉ कुछ पोजिशन में बदल जाती है जो मरीज
के उठने बैठने लेटने या श्वास गति आदि की वजह से भी होती है कभी कभी तो नाभी के
टलने की स्थितियों के बदलने के कारण भी हो सकती है ऐसी स्थिति में यह स्थिति स्पष्ट
नही हो पाती परन्तु उपरोक्त प्रकार से परिक्षण करने पर स्थितिया स्पष्ट हो
जाती है । परन्तु बार बार नाभी स्पंदन के स्थान बदलने पर कई बार स्थिति स्पष्ट
नही होती इससे एक तो बीमारीयों को पहचानने में असुविधा होती है दूसरा नाभी को
यथास्थान लाने की क्लासिक पैटर्न या एकल स्पंदन विधि का पालन नही होता ऐसी
स्थिति में उपरोक्त सात प्रकार की स्थितियों से यह समस्या हल हो जाती है यदि
इसके बाद भी स्थिति स्पष्ट न हो तो रोगी को बिलकुल खाली पेट रखते हुऐ पहला
परिक्षण करे इसके बाद उसे पानी या दूध पिला कर नाभी का परिक्षण उपरोक्त सातों
प्रकार से करे या फिर खाली पेट पेट की मालिश कराने के बाद परिक्षण करे । खाली पेट
पेट की मालिश करने के बाद नाभी के टलने पर स्पंदन की स्थिति स्पष्ट हो जाती है
।
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