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रविवार, 28 अक्तूबर 2018

नि:शुल्‍क ब्‍यूटी क्‍लीनिक प्रशिक्षण फोटो


मुकेश तिवारी फिल्‍म अभिनेता एंव चन्‍देल


मोटापा/सेल्‍युलाईट डॉ0कृष्‍ण भूषण सिंह


                      मोटापा/सेल्‍युलाईट

             सेल्‍युलाइट वसा कोशिकाओं की परते होती है , ये त्‍वचा के नीचे पाये जाने वाले उन ऊतकों में पायी जाती है ,जो अन्‍य ऊतकों व अंगों को सहारा देती है और जोडती है । यह वसा अधिकतर महिलाओं के जांधो व नितम्‍बों पर जमा होती है । इसमें त्‍वचा एकदम संतरे के छिलके की तरह खुरदरी दिखाई देती है ।अतरिक्‍त चर्बी और सेल्‍युलाई का सीधा सम्‍बन्‍ध होता है,इसमें बढी हुई वसा कोशिकायें संयोजक ऊतकों पर दबाब बनाती है ,इससे त्‍वचा कोमल दिखायी नही देती है । संयोजक ऊतक  (कलेक्टिव) के बीच की परत को मुलायम व लचीला बनाये रखने के लिये बायों फलेबनाईडस और विटामिन सी  लाभदायक होते है । विशेषज्ञों का मानना है कि शरीर में मौजूद टाक्‍सीन के कारण ऐसा होता है ,लेकिन यह भी देखा गया है कि महिलाओं के कनेक्‍टव टिश्‍यू पुरूषों के मुकाबले काफी दृढ होते है । इसलिये जैसे जैसे महिलाओं का बजन बढता जाता है । कोशिकायें फैलती जाती है ऐसी स्थिति में ये ऊतक की ओर यानी त्‍वचा की ऊपरी परत की तरफ फैलती जाती है ,जिससे त्‍वचा एकदम संतरे के छिलके जैसी दिखलाई देती है । पुरूषों में अकसर बसा का जमाव जांधों पर कम ही देखने को मिलता है । क्‍योकि उनकी बाहरी त्‍वचा काफी मोटी होती है । जिससे स्‍पष्‍ट तौर पर त्‍वचा के नीचे कितना वसा जमा हो रहा है ,इसका पता नही चलता ,लेकिन सेल्‍यूलाईट के पीछे मूल कारण अभी भी विशेषज्ञों के लिये कौतुक का विषय बना हुआ है ।   
     अक्‍सर रक्‍त संचार  इस्‍ट्रजन  बढ जाने के कारण संयोजन ऊतक कमजोर हो जाते है और बॉटर रिटेशन की समस्‍या बढ जाती है । जिस के कारण चर्बी शरीर में जमा होने लगती है ,लसीका प्रवाह ठीक रहे,इसके लिये नियमित व्‍यायाम करना आवश्‍यक है । यदि ऐसा न किया जाये तो निष्‍कासन ठीक से नही हो पाता है ,और जरूरत से ज्‍यादा पानी के कारण त्‍वचा फूल जाती है जिससे रक्‍त ऊतकों तक नही पहुच पाता है । और फ्री रेडिकल्‍स निष्‍कासित नही हो पाते है । अन्‍य बसा या बसा कोशिकाओं की तरह सेल्‍युलाईट फैट भी कम कैलोरी वाला भोजन करने से प्रभावित होता है और इससे शरीर के वसा में कमी आती है लेकिन वसा धटान के बाबजूद फैट सेल्‍स मोजूद रहते है ,और कैलोरी लेने पर तुरन्‍त बढ जाते है । इसलिये सेल्‍यूलाईट को सर्जरी द्वारा खत्‍म करने की सलाह डाक्‍टर दिया करते है ।वैज्ञानिकों का ऐसा भी मानना है कि ,बिना सर्जरी के सैल्‍युलाईट का उपचार संभव नही है ।परन्‍तु अन्‍य वैकल्‍पिक उपचारको का मानना है कि ऐसे ऊतकों व टाक्‍सीन को शरीर की मेटाबोलिक दर व ऊर्जा की खपत को बढाकर कम किया जा सकता है । फैट सेल्‍स जो शरीर में मौजूद है ,उनकी जानकारी को यदि भुला दिया जाये व सेल्‍स के बीच बचे फ्रीरेडिकल्‍स टाक्‍सीन तथा अव्‍यर्थ पदार्थो को यदि शरीर से निकाल दिया जाये तो इस प्रकार की समस्‍या से छुटकारा पाया जा सकता है। इसीलिये चिकित्‍सक योगा व कसरत आदि करने की सलाह देते है ,शरीर व कोशिकाओं के मेटाबोलिक दर व ऊर्जा खपत को बढाकर शरीर से अव्‍यर्थ पदार्थो को निकाला जा सकता है ।
     एन्‍टी आक्‍सीडेंटस हमारे शरीर का फ्रिरेडिकल्‍स से बचाव करता है । एन्‍टी आक्‍सीडेंटस विटामिंस एंजाईम्‍स व हर्बल एक्‍सटैक्‍ट्रस होते है । इसमें विटामिन सी ,विटामिन ई और बीटा कैरोटीन प्रमुख है । ये ताजे फलों सब्‍जीयों जडी बूटीयों आदि में प्रचुर मात्रा में पाई जाती है । शरीर का रक्‍त संचार ठीक से हो इसके लिये आवश्‍यक है कि रक्‍त संचार को ठीक करने के प्राकृतिक उपाय एव बॉडी की मिसाज, या बॉडी ब्रश भी इसके लिय उपयोगी है । हल्‍के हल्‍के मुलायम ब्रश से बॉडी की मिसाज करने से या असेंशियल आलय से त्‍वचा को माईश्‍चराईज करने से रक्‍त संचार उचित तरिके से होता है । ब्‍युटी क्‍लीनिक में बी गम मिसाज से भी रक्‍त संचार को उचित तरीके से कम किया जा सकता है । चीन की परम्‍परागत एक उपचार विधि है जिसे ची नी शॉग कहते है । मोटापा कम करने में आज कल इसका उपयोग समृद्धसील राष्‍ट्रों में काफी उत्‍साह के साथ किया जा रहा है चूंकि इसके परिणाम काफी आशानुरूप रहे है । इस उपचार विधि का एक और लाभ यह है कि इसमें मोटापे को घटाने के लिये पेट का मिसाज किया जाता है । इससे पेट के अंतरिक महत्‍पूर्ण अंग जिनका उत्‍तदायीत्‍व हमारे शरीर के पाचन तंत्र को उचित तरीके से कार्य लेना है । ची नी शॉग उपचार से पेट के अंतरिक अंग मजबूत होते है एंव मेटाबोलिक की दर को बढाकर अनावश्‍क चर्बी को आशानुरूप कम किया जाता है । चीनी शॉग उपचार से हमारे शरीर की प्रिरेडिकल्‍स एंव टाक्‍सीन आसानी से निकल जाती है इससे त्‍वचा पर झुरूरीया नही पडती साथ ही त्‍वचा स्निग्‍ध मुलाय हो जाती है । ची नी शॉग उपचार से हमारे शरीर की सर्विसिंग हो जाती है ।  प्राकृतिक उपायों में रसेदार भोजन व ताजे फल तथा अधिक पानी पीने एंव व्‍यायाम ,योगा आदि कर शरीर की ऊर्जा व मेटाबोलिक दर को बढायें ताकि शरीर से अव्‍यर्थ पदार्थ बाहर निकल जायें । मॉस पेशियों के अधिक इस्‍तेमाल से रक्‍त व लसिका सर्कुलेशन ठीक रहता है इससे पसीना अधिक आता है त्‍वचा डीटाक्सिफाई होती है एंव चर्बी कम हो जाती है ।    
    अरोमाथैरेपी :- मोटापा घटाने या कम करने में अरोमाथैरेपी के आयल भी उपयोगी है । मिसाज के लिये रोजमेरी फेनल ,असेशियल आयल में दो तीन बूद थोडा सा बादाम का तेल मिलाकर इसे मेन नर्व जो शरीर व अंगों के मध्‍य लाईन पर मौजूद होते है इसे इस्‍टूमुलेट (उत्‍तेजित) करने से शरीर व कोशिकाओं के मेटाबोलिक दर व ऊर्जा की खपत बढती है  एंव शरीर से अत्‍याधिक पसीना निकलता है । इससे शरीर का टॉक्सिन पानी पसीने के माध्‍यम से बाहर आने लगता है जो कि शरीर का मोटापा कर करता है । पेट पर मोटापा कम करने एंव चबी घटाने के प्रमुख छै: पाईन्‍ट है । जिसका विवरण एक्‍युपंचर चिकित्‍सा में किया गया है । मोटापा कम करने व चर्बी को घटाने एंव मेटाबोलिक दर को बढाने के ये छै: प्रमुख बिन्‍दू है जिसका प्रयोग एक्‍युपंचर ,नेवल एक्‍युपंचर के साथ ची नी शॉग उपचार तथा एक्‍युप्रेशन चिकित्‍सा पद्धतियों के साथ मिसाज थैरापी में किया जाता है । उक्‍त पाईन्‍ट सम्‍पूर्ण शरीर के मोटर नर्व को कवर करते है ,इसीलिये यंत्र निर्माताओं ने मोटापा कम करने व नर्व को इस्‍टुमूलेट करने हेतु कुछ इस प्रकार के यंत्र करने हेतु कुछ इस प्रकार के यंत्रों का निर्माण किया है जिसमें उक्‍त पाईन्‍ट को दबाब देने व स्‍टुमूलेट करने की व्‍यवस्‍था रहती जैसे बटर फलाई एड ,स्‍लीम सोना बेल्‍ट आदि ,बटर फलाई तितली के आकार का छोटा सा यंत्र होता है इसमें पेट पर चिपका देते है इसके स्‍वीच को चालू करने से मशीन में बायबरेशन होता है यह बायबरेशन प्रमुख नर्व केन्‍द्र को उत्‍तेजित करते है इससे शरीर में ऊर्जा की खपत बढती है व शरीर के टाक्‍सीन पसीने के द्वारा बाहर निकलने लगते है । शरीर के इस प्रमुख बिन्‍दूओं को इस्‍टीमुलेट करने के कई तरीके प्रचलन में है । 
एन्‍टी आक्‍सीडेंटस :- एन्‍टी आक्‍सीडेंटस हमारे शरीर को फ्री रेडिकल्‍स से बचाव करता है ,फ्री रेडिकल्‍स एक ऐसा तत्‍व है ,जो शरीर के कोशिकाओं के आक्‍सीकरण क्रिया के बाद बेकार (अव्‍यर्थ पदार्थ) बचा रहता है । शरीर की प्रतिरोधक क्षमता इसे शरीर से बाहर निकालने का प्रयास करती रहती है ,परन्‍तु इसके बाद भी फ्रीरेडिकल्‍स शरीर में बच रहते है ,इनके जमने से शरीर की अन्‍य कोशिकाओं के कार्यो में अनावश्‍यक अवरोध उत्‍पन्‍न होता है ,मृत सेल्‍स शरीर से बाहर नही निकल पाते ,नये सेल्‍स का निमार्ण अवरूद्ध हो जाता है इससे अन्‍य व्‍यर्थ पदार्थ शरीर से बाहर नही निकल पाते । वैज्ञानिकों का मानना है कि इसी फ्रीरेडिकल्‍स की वजह से वृद्धावस्‍था होती है । त्‍वचा व मॉसमेशियों में झुरूरीयॉ उत्‍पन्‍न होने लगती है । एण्‍टी आक्‍सीडेंटस को रोका जा सकता है ,सैल्‍युलाईट ट्रीटमेन्‍ट से मॉसपेशियों में जमने बाले ब्‍यर्थ पदार्थो व फ्रीरेडिकल्‍स को बाहर निकालने की कई प्राकृतिक विधियॉ प्रचलन में है । सौंर्द्धय उपचार में इनका प्रयोग सदियों से होता आया है कुछ लोगों में यह गलत धारण है कि सैल्‍युलाईट उपचार से केवल मोटापा कम किया जाता है । परन्‍तु ऐसा नही है कि इसका उपचार से त्‍वचा का ढीलापन उसकी झुरूरीयॉ तथा त्‍वचा की स्‍वाभाविकता को लम्‍बे समय तक कायम रखा जा सकता है ।                                                 








1-मोटापा कर करे हेतु स्‍टो0-25 पांईट:-
 एक्‍युपंचर एंव नेवल एक्‍युपंचर उपचार में मोटापा कम करने एंव पेट की अनावश्‍य चर्बी को कम करने के लिये एस0टी0-25 पांईट का प्रयोग किया जाता है । एक्‍युपेशर उपचार में भी इस पाईट पर गहरा अतिगहरा दबाब देकर पेट का मोटापा या चर्बी को कम किया जाता है ।

  2-मोटापा कम करने के पांच एक्‍युपंचर पाईंट:-
 मोटापे का कारण शरीर के कुछ हिस्‍सों में विशेष कर ऐसे हिस्‍सो में अधिक होता है जहॉ पर शरीर से कम काम लिया जाता है । जैसे पेट ,जांध कुल्‍हे आदि परन्‍तु कुछ व्‍यक्तियो में मोटापा सम्‍पूर्ण शरीर में होता है । एक्‍युपंचर में मोटापे को कम करने ऐवम चबी को घटाने के लिये निम्‍न पाईट पर एक्‍युपंचर पाईन्‍ट पर पंचरिग कर उचित परिणाम प्राप्‍त किया जा सकता है । वैसे यह नेवल एक्‍युपंचर चिकित्‍सा में प्रयोग किये जाने वाला पाईट है ।



इस चित्र को ध्‍यान से देखिये इसमें क्रमाक 1 से 6 तक के पाईट है यही है मोटापा व शरीर से अनावश्‍यक चर्बी को कम करने के पाईन्‍ट क्रमाक 1,2,5,6 यह रिन चैनल पर पाये जाने वाले पाईट है ।
पाईन्‍ट नम्‍बर -1 यह नाभी या रिन-8 से डेढ चुन नीचे रिन चैनल पर पाई जाती है यहां पर रिन -6 पाईन्‍ट होता है
पाईन्‍ट नम्‍बर -2 यह रिन-5 बिन्‍दू है इसकी दूरी नाभी से दो चुन नीचे रिन चैनल पर होती है ।
पाईन्‍ट नम्‍बर -3 इसकी दुरी पाईन्‍ट नम्‍बर 2 से दो चुन आडी रेखा में दोनो तरफ होती है जहॉ पर स्‍टोमक-27 पाईन्‍ट पाया जाता है ।
पाईन्‍ट नम्‍बर-4 इसी स्थिति रिन-8 बिन्‍दू या नाभी मध्‍य से दो चुन की दूरी में आडी रेखा में दोनो तरफ होती है । जहॉ पर स्‍टो-25 पाईन्‍ट होता है ।
पाईन्‍ट नम्‍बर-5 यह बिन्‍दू नाभी या रिन-8 पाईन्‍ट से एक चुन रिन चैनल पर ऊपर की तरफ होती है जहॉ पर रिन-9 पाईन्‍ट होता है ।
पाईन्‍ट नम्‍बर-6 यह बिन्‍दू नाभी या रिन-8 पाईन्‍ट से चार चुन ऊपर रिन चैनल पर पाई जाती है जहॉ पर रिन- 12 पाईन्‍ट होता है ।
 उक्‍त छै: पाईन्‍टस पर पंचरिग कर मोटापे को कम किया जाता है । होम्‍योपंचर उपचार में लक्षणों को ध्‍यान में रख कर उक्‍त पाईट पर होम्‍योपैथिक की शक्तिकृत औषधियों का उपयोग किया जाता है । एक्‍युप्रेशर चिकित्‍सा एंव ची नी शॉग उपचार में उक्‍त पाईट पर दबाब व मिसाज तकनीकी से उपचार कर मोटापे को कम किया जाता है ।

                                डॉ0कृष्‍ण भूषण सिंह
                            म0न0 82 वृन्‍दावन बार्ड
                              गोपालगंज सागर म0प्र0

नाभी चि‍कित्‍सा [व्‍यर्थ सी दिखने वाली नाभी का महत्‍व {डॉ0 के0बी0 सिंह}

                             नाभी चि‍कित्‍सा
       व्‍यर्थ सी दिखने वाली नाभी का महत्‍व
 आज मुख्‍यधारा की मॅहगी चिकित्‍सा उपचार के भंवरजाल से परेशान जन सामान्‍य एक ऐसी प्राकृतिक उपचार विधि की शरण में जा रहा है जिसे हम सभी  नाभी चिकित्‍सा के नाम से जानते है इसकी उपयोगिता एंव आशानुरूप परिणामों ने इसे  विश्‍व के हर कोने में चर्चा का विषय बना दिया है । परन्‍तु नाभी चिकित्‍सा हमारे देश की धरोहर है इसके महत्‍व को हम न समक्ष सके परन्‍तु विदेशी बौद्य भिक्षु ने इसके महत्‍व को समक्षा बिना दवा दारू के प्राकृतिक तरीके से रोगों को पहचानना ,एंव उपचार के आशनुरूप परिणामों ने इसे जापान व चीन में ची नी शॉग उपचार के नाम से स्‍थापित किया । नाभी चिकित्‍सा विश्‍व के हर कोने में किसी न किसी नाम से प्रचलन में है ।
    मानव शरीर में व्‍यर्थ सी दिखने वाली नाभी , हमारे रोज मर्ज के बोल चाल की भाषा में कई बार ना भी शब्‍द का उपयोग होते हुऐ भी, इस शब्‍द का महत्‍व उसी तरह से लुप्‍त प्राय: है जैसा कि हमारे शरीर में व्‍यर्थ सी दिखने वाली नाभी का है । नाभी ना अर्थात नही , भी अर्थात हॉ के सम्‍बोधन से मिलकर बना एक ऐसा शब्‍द है जिसका अर्थ ना और हॉ मे होता है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार से नाभी हमारे शरीर का एक महत्‍वपूर्ण अंग होते हुऐ भी जन सामान्‍य इसे अनुपयोगी समक्षता है ऐसे व्‍यक्ति इसके प्रथम अक्षर ना का प्रतिनिधित्‍व करने वाले है । इसके दूसरे अक्षर भी अर्थात हॉ के सम्‍बोधन का प्रतिनिधित्‍व करने वाला समुदाय जिनकी संख्‍या अगुलियों पर गिनी जा सकती है इसके महत्‍व को समक्षता है । हम प्राय: अपने बोल चाल की भाषा में कहते है, ना भी जाओं तो चलेगा , ना भी हो तो चलेगा आदि आदि ऐसे वाक्‍य है जिसमें नाभी शब्‍द का कई बार उपयोग हम अंजाने में कर जाते है परन्‍तु अंजाने में किये गये इस धारा प्रवाह वाक्‍य का कितना महत्‍व है इस पर कभी विचार ही नही किया जाता , ठीक इसी प्रकार से हमारे शरीर में दिखने वाली व्‍यर्थ सी नाभी को हम प्राय: महत्‍व नही देते जबकि आज मुख्‍यधारा की चिकित्‍सा पद्धतियों के नये शोध व परिक्षणों ने यह बात सिद्ध कर दी है कि स्‍टैम्‍प सैल्‍स अर्थात नाभी की कोशिकाओं से कई असाध्‍य से असाध्‍य बीमारीयों का उपचार किया जा सकता है चिकित्‍सा विज्ञान का माना है कि बच्‍चे का जन्‍म इन्‍ही स्‍टैम्‍म सैल्‍स से होता है इन स्‍टम्‍म सैल्‍स के पास शरीर के विभिन्‍न अंगों के निर्माण की सूचना संगृहित होती है एंव ये छोटी से छोटी कोशिकाये अपनी संसूचना के अनुरूप शरीर के विभिन्‍न अंगों का निर्माण करती है । जैसे कोई हडियों का सैल्‍स है तो उसे हडियों का निर्माण करना है यदि किसी सेल्‍स के पास यह जानकारी है कि उसे शरीर का कोई विशिष्‍ट अंग का निर्माण करना है तो वह उसी अंग का निर्माण करेगा ।
  सदियों पूर्व से हमारे भारतवर्ष में परम्‍परागत उपचार विधियों में , नाभी से उपचार की कई बाते देखने को मिल जाती है परन्‍तु दु:ख तो इस बात का है कि ऐसी जानकारीयॉ एक जगह पर संगृहित नही है चंद जानकार व्‍यक्तियों ने इसे अपने धन और यश का साधन बना रखा था एंव उनके जाने के बाद यह जानकारी उनके साथ चली गयी । यहॉ पर मै कुछ उदाहरणों पर प्रकाश डालना चाहूंगा जो इसके महत्‍व को र्दशाते है । जैसे ओठों के फटने पर हमारे बडे बुर्जुग कहॉ करते थे नाभी पर सरसों का तेल लगा लो इससे ओठ नही फटेगे , पेशाब का न होने पर नाभी में चूहे की लेडी लगाने से पेशाब उतर जाती है , गर्भवति महिला को प्रशव में अधिक पीडा होने पर दाई अधाझारे की जड नाभी पर लगा देती थी , इससे प्रसव आसानी से बिना किसी तकलीफ के हो जाया करता था , ऐसे और भी कई उदाहरण हमे देखने को मिल जाते है । इसी प्रकार का एक उदाहरण और है जिसका प्रयोग चीन व जापान की परम्‍परागत उपचार विधि में सौन्‍र्द्धय समस्‍याओ के निदान में‍ किया जा रहा है इसमें नाभी के अन्‍दर जमा मैल को रेक्‍टीफाईड स्‍प्रीट में निकाल कर इसका प्रयोग उसी मरीज की त्‍वचा पर करने से त्‍वचा स्निंग्‍ध मुलायम चमकदार हो जाती है साथ ही शरीर पर झुर्रीयॉ व त्‍वचा के दॉग धब्‍बे ठीक हो जाते है ,उनका कहना है कि इसके नियमित प्रयोग से त्‍वचा में निखार के साथ रंग साफ गोरा होने लगता है । खैर जो भी हो, नाभी के महत्‍व को नकारा नही जा सकता । हमारे प्राचीन आयुर्वेद चिकित्‍सा पद्धति में कहॉ गया है कि नाभी पर 72000 नाडीयॉ होती है । नाभी पर मणीपूरण चक्र पाया जाता है इसकी साधना से असीम शक्तियॉ प्राप्‍त की जा सकती । नाभी चिकित्‍सा हमारे देश की धरोहर थी, परन्‍तु इसे हम सम्‍हाल न सके , मुख्‍यधारा की चिकित्‍सा पद्धतियों ने तो इसे अवैज्ञानिक एंव तर्कहीन कहॉ परन्‍तु , हमारा पढा लिखा सभ्‍य समाज जो पश्चिमोन्‍मुखी विचारधारा के अंधानुकरण का अनुयायी था उसने भी बिना इसकी उपयोगीता को परखे इसे महत्‍वहीन कहना प्रारम्‍भ कर दिया । इसी का परिणाम है कि आज मुख्‍यधारा की चिकित्‍सा पद्धतियों के भवर जाल में उलझ कर मरीज इतना भ्रमित हो चुका है कि उसे यह समक्ष में नही आता कि उपचार हेतु किस चिकित्‍सा की शरण में जाये । पश्चिमोन्‍मुखी विचारधारा के अंधानुकरण ने कई जनोपयोगी, उपचार विद्याओं को अहत ही नही किया बल्‍की उनके अस्तित्‍व को भी खतरे में डाल रखा है । स्‍वस्‍थ्‍य, दीर्ध,आरोग्‍य जीवन एंव रोग उपचार हेतु सदियों से चली आ रही उपचार विद्याओं का सहारा लिया जाता रहा है और इसके सुखद एंव आशानुरूप परिणाम भी मिले है । परन्‍तु दु:ख इस बात का है कि इन उपयोगी उपचार विधियों पर न तो हमने कभी शोध कार्य किया न ही इसकी उपयोगिता को परखने का दु:साहस किया । नाभी उपचार प्रक्रिया से कई उपचार विधियों का सूत्रपात समय समय पर हुआ है जैसे चीन व जापान की एक ऐसी परम्‍परागत उपचार विधि है जिसमें बिना किसी दवादारू के मात्र नाभी एंव पेट के आंतरिक अंगों को प्रेशर देकर मिसाज कर उसे सक्रिय कर जटिल से जटिल रोगों का उपचार सफलतापूर्वक किया जा रहा है । इस उपचार विधि का नाम है ची नी शॉग उपचार यह उपचार विधि भी हमारे देश की नाभी चिकित्‍सा की देने है हमारे यहॉ नाभी परिक्षण कर टली हुई नाभी को यथास्‍थान लाकर उपचार किया जाता रहा है इस उपचार विधि में भी इसी सूत्र का पालन किसी न किसी रूप में किया जाता है अत: हम कह सकते है कि ची नी शॉग उपचार विधि हमारे देश की ही देन है जिसे जापान व चीन के भिझुओं ने समक्षा व इसे अपने साथ ले गये तथा एक नये नाम से इस उपचार विधि ने चीन व जापान में अपना एक अलग स्‍थान बनाया । ची नी शॉग उपचार विधि से रोग उपचार के साथ शरीर की सर्विसिंग भी की जाती है आज कल फाईब स्‍टार होटलो में पेट की जो मिसाज प्रक्रिया शरीर की सर्विसिंग व पेट को स्‍वस्‍थ्‍य रखने के लिये की जा रही है वह वह यही उपचार विधि है । ची नी शॉग पार्लर भी तेजी से खुलते जा रहे है । नाभी उपचार में नेवल एक्‍युपंचर एंव नेवल होम्‍योपंचर की भी एक अहम भूमिका है चूंकि एक्‍युपंचर चिकित्‍सा में संम्‍पूर्ण शरीर में हजारों की संख्‍या में एक्‍युपंचर पाईट पाये जाते है इन एक्‍युपंचर पाईट को खोजना उपचारकर्ता के समक्‍क्ष एक बडी समस्‍या होती है फिर शरीर के कुछ ऐसे नाजुक अंग जिन पर सूईया चुभाना कठिन कार्य है इसी प्रकार होम्‍योपैथिक में हजारों की संख्‍या में होम्‍योपैथिक की शक्तिकृत दवाये होती है जिसका निर्वाचन रोग लक्षणों के हिसाब से करना चिकित्‍सको के लिये कठिन कार्य होता है । होम्‍योपैथिक एंव एक्‍युपंचर की साझा चिकित्‍सा को होम्‍योपंचर उपचार कहते है । नेवेल एक्‍युपंचर चि‍कित्‍सा में नाभी के आस पास शरीर के सम्‍पूर्ण एक्‍युपंचर पाईट पाये जाते है इस लिये नेवेल एक्‍युपंचर में नाभी पर एंव नाभी के आसपास एक्‍युपंचर की बारीक सूईयों को चुभा कर उपचार किया जाता है इसे नेवेल एक्‍युपंचर उपचार कहते है यह एक्‍युपंचर चिकित्‍सा से काफी सरल एंव आशानुरूप परिणाम देने वाली उपचार विधि है । नेवेल होम्‍योपंचर चिकित्‍सा में नाभी एंव नाभी के आस पास डिस्‍पोजेबिल बारीक निडिल में होम्‍योपैथिक की कुछ गिनी चुनी दवाओं को निडिल में भर कर नाभी एंव नाभी के आस पास क्षेत्र में चुभा कर उपचार किया जाता है । नेवल एक्‍युपंचर हो या नेवल एक्‍युपंचर हो इस चिकित्‍सा पद्धति का मानना है कि नाभी पर सम्‍पूर्ण शरीर के पाईन्‍ट पाये जाते है जैसा कि हमारे आयुर्वेद में भी कहॉ गया है कि नाभी पर 72000 नाडीयॉ पाई जाती है इन 72000 नाडीयों का सम्‍बन्‍ध हमारे सम्‍पूर्ण शरीर से होता है । नेवल एक्‍युपंच में येन यॉग को आधार मानकर तीन चार दवाये बनाई गयी है जिनको डिपोजेबिल न‍िडिल में भर कर नाभी के धनात्‍मक .ऋणात्‍मक पाईन्‍ट पर चुभा कर जटिल से जटिल रोगों का उपचार सफलतापूर्वक किया जाता है । नेवल एक्‍युपंचर एंव नेवेल होम्‍योपंचर चिकित्‍सा एक सरल उपचार विधि है इस उपचार विधि से समस्‍त प्रकार के रोगो का उपचार आसानी से किया जाता है । 
    नाभी चिकित्‍सा एंव ची नी शॉग उपचार, नेवेल एक्‍युपंचर ,नेवल होम्‍योपंचर से
1- सौन्‍द्धर्य समस्‍याओं का उपचार :- सौन्‍द्धर्य समस्‍याओं का उपचार जैसे पेट पर स्‍ट्रेचमार्क ,ब्‍लैक हैड , उम्र से पहले त्‍वचा पर झुरूरीयॉ , बालों का असमय सफेद होना या गिरना ,स्‍त्रीयों के स्‍त्रीय सुलभ अंगों का विकसित न होना , बौनापन , अत्‍याधिक दुबलापना ,अनावश्‍यक मोटापा ,स्‍त्रीयों के शरीर में अनावश्‍यक बालों का निकलना, त्‍वचा पर दॉग धब्‍बे, त्‍वचा पर झुरू आदि जैसे अनेको समस्‍याओं का उपचार इन चिकित्‍सा पद्धतियों से किया जा सकता है ।
2-शारीरिक रोग :- नाभी चिकित्‍सा एंव ची नी शॉग उपचार, नेवेल एक्‍युपंचर ,नेवल होम्‍योपंचर से पेट सम्‍बन्धित रोग, हिदय रोग,मिर्गी, हिस्‍टीरिया, दमा एंव श्‍वास रोग, कैंसर ,किडनी के रोग ,पथरी , गले के रोग ,तथा अन्‍य विकृति विज्ञान से सम्‍बन्धित समस्‍ये आदि के साथ समस्‍त प्रकार की बीमारीयों में यह उपचार विधि काफी उपयोगी है
 जो भी चिकित्‍सक इन चिकित्‍सा विधियों को सीखना चाहे वह हमारे ई मेल पर हमे सूचित कर सीख सकता है । इसकी सारी जानकारीयॉ हम नि:शुल्‍क मेल पर भेजते है इसका अध्‍ययन घर बैठे करने के पश्‍चात इसका प्रेक्टिकल प्रशिक्षण भी नि:शुल्‍क उपलब्‍ध कराया जाता है । अत: जो भी चिकित्‍सक नेवल एक्‍युपंचर या नेवल होम्‍योपंचर सीखने का इक्‍च्‍छुक हो वह हमारे मेल पर या जो साईड बतलाई गयी है उससे जानकारीयॉ प्राप्‍त कर सकता है । नाभी उपचार या ची नी शॉग चिकित्‍सा जो भी व्‍यक्ति सीखने का इक्‍च्‍छुक हो वह हमारे बतलाये मेल या साईड पर जा कर जानकारीयॉ प्राप्‍त कर सकता है ।
ई मेल- krishnsinghchandel@gmail.com
साईड- http://krishnsinghchandel.blogspot.in
http://beautyclinict.blogspot.in/
                                             डॉ0 के0बी0 सिंह


नाभी चिकित्‍सा भाग-2(रस रसायन)


                     नाभी चिकित्‍सा भाग-2
नाभी चिकित्‍सा का उल्‍लेख विश्‍व की कई वैकल्‍पिक चिकित्‍सा पद्धतियों एंव कई परम्‍परागत उपचार विधियों में देखने को मिल जाती है ,परन्‍तु इस सरल सुलभ उपचार विधि के परिणामों से जन समान्‍य अनभिज्ञ है इसका मूल कारण यह है कि इस चिकित्‍सा पद्धति के जानकारो ने इस धन व यश कमाने के लिये अपने तक ही सीमित रखा, उनके बाद यह पद्धति धीरे धीरे उनके साथ लुप्‍त होती गयी । नाभी चिकित्‍सा या उपचार पद्धति के लुप्‍त होने के पीछे आधुनिक चिकित्‍सा विज्ञान का भी बहुत बडा हाथ है, जिन्‍होने इस प्रकृतिक उपचार विधि को अवैज्ञानिक एंव तर्कहीन कह कर, इसकी उपेक्षा ही नही की बल्‍की इसके विकास क्रम को ही अवरूध कर दिया , इसके पीछे मुख्‍य धारा से जुडी चिकित्‍सा पद्धतियों का व्‍यवसायीक दृष्‍टीकोण प्रबल था, जो इस जैसी सरल सुलभ तथा आशानुरूप परिणाम देने वाली उपचार विधि को हासिये में ला खडा कर दिया । चिकित्‍सा जैसा पुनित कार्य  व्‍यवसायीक प्रतिस्‍पृधा के भॅवरजाल में ऐसा फॅसता चला गया कि सस्‍ती सुलभ प्रकृतिक उपचार विधियॉ धीरे धीरे लुप्‍त होती चली गयी । इसीका परिणाम है कि आज नाभी जैसी सरल सुलभ तथा आशानुरूप परिणाम देने वाली उपचार विधि से जन सामान्‍य अपरिचित है विश्‍व के हर कोने में नाभी चिकित्‍सा उपचार विधि किसी न किसी नामों से अभी भी प्रचलन में है एंव अपने आशानुरूप परिणामों की वजह से एंव मुख्‍य धारा कि चिकित्‍सा पद्धतियों के विरोध के बाबजूद अपना अस्‍तीत्‍व बनाये हुऐ है । नाभी चिकित्‍सा का उल्‍लेख हमारे  प्राचीन आयुर्वेद चिकित्‍सा पद्धति में देखा जा सकता है समुद्रशास्‍त्र एंव ज्‍योतिष विद्याओं में भी नाभी उपचार का उल्‍लेख है । अत: हम कह सकते है कि नाभी चिकित्‍सा हमारे भारतवर्ष की अमूल्‍य घरोहर है , जिसे हम न सम्‍हाल सके , सम्‍हालना तो दूर की बात है हमारा पढा‍ लिखा सभ्‍य समाज इसकी उपेक्षा करते न थकता था वही बौद्ध भिक्षुओं ने हमारी इस उपचार विधि के महत्‍व को समक्षा एंव इसे अपने साथ चीन व जापान ले गये जहॉ यह एक नई उपचार विधि ची नी शॉग के नाम से चीन व जापान मे प्रचलित हुई । एक्‍युपंचर एंव एक्‍युप्रेशर उपचार विधियों के चिकित्‍सकों ने इसे एक नये उपचार विधि के रूप में प्रस्‍तुत किया अत: कहने का तात्‍पर्य मात्र इतना है कि नाभी चिकित्‍सा विश्‍व की वैकल्पिक चिकित्‍सा पद्धतियों में किसी न किसी रूप में प्रयोग की जा रही है एव इसके बडे ही अच्‍छे परिणाम मिल रहे है । नाभी चिकित्‍सा के इतिहास को दोहराने की अपेक्षा इसके उपचार महत्‍व पर प्रकाश डालना उचित होगा ताकि जन सामान्‍य इस उपचार विधि का स्‍वयम उपयोग कर इसके परिणामों से परिचित हो सके ।
   आज चिकित्‍सा जैसा पुनित कार्य एक व्‍यवसाय बन चुका है छोटी से छोटी बीमारीयों के उपचार हेतु मुख्‍यधारा से जुडे चिकित्‍सक बडे से बडा परिक्षण लैब टेस्‍ट कराते है हजारो रूपये खर्च होने के बाद दवाये लिखी जाती है या उपचार शुरू होता है । जितनी बडी अस्‍पताल या जितना बडा डॉ0 उतना खर्च । मरीज भी चिकित्‍सा एंव उपचार के भंवरजाल में इस तरह से उलझ जाता है कि उसे भी कुछ समक्ष में नही आता ।
                   नाभी परिक्षण से रोग की पहचान
नाभी चिकित्‍सा पद्धति एक सरल, सुलभ उपचार विधि है , जिस प्रकार  आज मुख्‍यधारों से जुडी चिकित्‍सा पद्धतियॉ या अन्‍य चिकित्‍सा विधियॉ रोग निदान से पूर्व रोग की पहचान करने हेतु कई प्रकार की विधियॉ अपनाती है जैसे पैथालाजी ,एक्‍सरे ,सोनोग्राफी आदि इससे शरीर में कौन सा रोग है यह मालुम हो जाता है । आयुर्वेद जैसी प्राचीन चिकित्‍सा में नाडी परिक्षण आदि से रोग की पहचान की जाती है, होम्‍योपैथिक उपचार में लक्षणों के आधार पर रोग की स्थिति को पहचान कर उपचार किया जाता है । ठीक इसी प्रकार नाभी चिकित्‍सा में भी उपचार से पूर्व शरीर के किस अंग में खराबी है या कौन सा रोग है पहचाना जाता है  नाभी चिकित्‍सकों का मानना है कि समस्‍त प्रकार की बीमारी पेट से प्रारम्‍भ होती है उनका सिद्धान्‍त है कि रस एंव रसायनों की असमानता से समस्‍त प्रकार के रोग उत्‍पन्‍न होते है 1-रस :- प्राणी जीवन का आधार ही रस है, यानी हमारे शरीर में जो भी तरल रूप मे है चाहे वह पाचन क्रिया उत्‍पन्‍न होने वाले रस, विटामिन, एमिनो एसिड, या फिर विभिन्‍न प्रकार के रसायनिक घटक ही क्‍यो न हो, प्रथमावस्‍था में ये सभी रस की श्रेणी में ही आते है, फिर सम्‍बन्धित अंगों के माध्‍यम से रक्‍त व  हार्मोन में परिवर्तित होते है जो रस की , द्वितिय अवस्‍था में रसायनिक घटक में परिवर्तिन होते है ।
2-रसायन :- हम जो कुछ गृहण करते है वह पहले रस में परिवर्तित होता है इसके बाद रसायनिक घटकों में रसायनिक प्रक्रिया द्वारा परिवर्तित होता है, इसे रसायन कहते है । हार्मोन्‍स हो या रक्‍त में मिश्रित सभी प्रकार के तत्‍व रसायनिक प्रक्रिया के माध्‍यम से ही परिवर्तित होते है ।
  अत: नाभी चि‍कित्‍स का मूल सिद्धान्‍त है कि प्राणीयों की समस्‍त प्रकार की बीमारीयॉ रस रसायनों की असमानता की वजह से उत्‍पन्‍न होती है । इस चिकित्‍सा विधि में उपचारकर्ता सर्वप्रथम रस एंव रसायनों को समान्‍यावस्‍था में लाने का प्रयास करता है । उनका मानना है कि रस एंव रसायनों के साम्‍यावस्‍था में आते ही समस्‍त प्रकार की बीमारीयों का निदान बिना किसी दबा दारू के हो जाता है ।
परन्‍तु हमारे शरीर के रस रसायनों के परिवर्तन व प्रतिक्रिया के परिणाम स्‍वरूप जो तत्‍व पसीने आदि के माध्‍यम से शरीर से निकलते रहते है वह नाभी के गहरे भाग में धीरे धीरे जमने लगते है जो मैल की परत के रूप में देखे जा सकते है इसमें एक विशिष्‍ट प्रकार की गंध पाई जाती है यह गंध शरीर के रस रसायनों की विकृति को दृशाती है शरीर में अम्‍लता एंव क्षारीयता को इसकी गंध से आसानी से पहचाना जाता है चूंकि शरीर में रस रसायन के परिवर्तन एंव अम्‍लीयता तथा क्षारीयता के स्‍तर की असमानता से कई प्रकार की बीमारीयों का जन्‍म होता है । अम्‍ल एंव क्षार का पी एच-7 होने पर शारीर का रसायनिक संतुलन सही होता है ,पीएच-7 से अधिक होने पर क्षारीय एंव कम होने पर अम्‍बली होता है  ]
 इसके घटने या बढने पर शरीर क्षारीय या अम्‍बलीय होने लगता है अम्‍ल व क्षार की अधिकता या कमी का परिणाम शारीरिक रसायनिक घटकों में असमानता उत्‍पन्‍न तो करती ही है साथ ही अम्‍बली या क्षारीय माध्‍यमों में होने वाले वैक्‍टरियॉ उत्‍पन्‍न होने लगते है इससे वेक्‍टेरियाजनित बीमारीयों की संभावनाये बढ जाती है । क्षय रोग अम्‍लीय रोग फेफडों के रोग व कैसर जैसी बीमारीयों में शारीर में अम्‍ल का स्‍तर बढ जाता है इससे नाभी मे जो गंध होती है अम्‍बलीय या खटटी ,इसके मैल की परत को निकाल कर उसे साफ पानी में घोलकर लिटमस पेपर पर डालने पर लिटमस पेपर का रंग नीला हो जाता है । क्षार के स्‍तर के अधिक बढने पर  कडुवी सी गंध आती है तथा इसकी परत का परिक्षण करने पर लिटमस पेपर लाल हो जाता है । जानकार नाभी चिकित्‍सक नाभी पर पाये जाने वाले इस मैल का परिक्षण विभिन्‍न विधियों से कर बीमारी का पता आसानी से लगा लेते है ।  जैसे यदि नाभी धारी के मध्‍य पीला रंग है तो उसे पित्‍त से सम्‍बन्धित बीमारीयॉ या फिर पीलियॉ जैसा रोग होगा , ठीक इसी प्रकार यदि नाभी धारीयों का रंग अत्‍यन्‍त लाल है तो उसे रक्‍त विकार की शिकायत हो सकती है । नाभी धारीयों के मध्‍य सफेद रग का होना वात रोग या नसों से सम्‍बन्धित बीमारीयों का दृशाता है । नाभी में खटटी गंध आने पर रोगी अपच तथा अम्‍ल्‍ा रोग का शिकार होता है ।
 अम्‍ल क्षार  का संतुलन बिगडना :- इस चिकित्‍सा पद्धति का माना है कि शरीर में समस्‍त प्रकार की बीमारीयों का उत्‍पन्‍न होना अम्‍ल क्षार के संतुलन की असमानता है हमारे शरीर में दो तरह के तत्‍व होते है एक अम्‍ल दुसरा क्षारीय । यदि इन दोनो का संतुलन बिगड जाये तो हमारे शरीर मे रोग उत्‍पन्‍न होने लगता है शरीर में अम्‍ल का अधिक होना घातक है    शरीर में अम्‍ल की मात्रा अधिक होने पर कई प्रकार की बीमारीयॉ उत्‍पन्‍न जैसे शरीर में र्दद रहना ,पित्‍त का बढना ,बुखार आना ,चिडचिडाहट , रोग प्रतिरोधक क्षमता का कम हो जाना ,कैसर जैसी घातक बीमारीयों का मुख्‍य कारण शरीर में अम्‍लीयता का बढना है ।
अम्‍ल :- अम्‍ल (एसिड) को मोटे हिसाब निम्‍न प्रकार से पहचान सकते है ये स्‍वाद में खटटे होते है एंव हल्‍दी से बनी रोली को नीला कर देती है । अधिकाश धातुओं पर अभिक्रिया कर हाईड्रोजन गैस उत्‍पन्‍न करती है तथा क्षार को उदासीन कर देती है ।
क्षार:- क्षार (एलकलाईन) उन पदाथों को कहते है जिनका विलयन चिकना चिकना होता है तथा ये स्‍वाद में कडुवे होते है ,हल्‍दी से बने रोली को लाल कर देते है और अम्‍लों को उदासीन कर देते है । हमारे शरीर में भी दो तरह के तत्‍व होते है अम्‍ल हाईडोजन आयन को शरीर में बढादेता है क्षारीय भोजन हाइडोजन आयन को कम कर देता है जो शरीर के लिये लाभदायक है ।
पी एच-7 :-  अम्ल एवं क्षार की मात्रा को नापने के लिए एक पैमाना तय किया है जिसे पीएच कहते हैं । किसी पदार्थ मंे अम्ल या क्षार के स्तर को की मानक ईकाइ पीएच है । पीएच को मान 7 से अधिक अर्थात वस्तु क्षारीय है । शुद्ध पानी का पीएच 7 होता है । पीएच बराबर होने पर पाचन व अन्य क्रियाएं सुचारू रूप से होती है । तभी हमारे शरीर की उपापचय क्रिया सही होती है एवं हारमोन्स सही कार्य कर पाते हैं एवं उनका सही स्त्राव होता है । तभी शरीर की प्रतिरोध क्षमता बढ़ती है ।
बढ़ता प्रदूषण, रसायनों का सेवन व तनाव से शरीर में अम्लता की मात्रा बढ़ती है । तभी आजकल रक्त मे पीएच 7.4 से कम हो गया है । 7.4 आदर्श पीएच माना जाता है । इससे उपर पीएच का बढ़ना क्षारीय व इसका 7.4 से कम होना एसीडीक होना बताता है। आजकल हमारा रक्त का पीएच 6 या 6.5 रहता है । इसी से कैंसर जैसी घातक बीमारियां होती है । शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो गई है । शरीर में दर्द इसी से रहता है । पित्त का बढ़ना, बुखार आना, चिढ़ना सब अम्लता बढ़ने से होता है ।
निम्बू, अंगुर आदि फल खट्टे होते हैं लेकिन पाचन पर ये क्षारीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं । इनके अन्तर स्वभाव से नही बल्कि पचने पर जो प्रभाव होता है उसके
 कारण क्षारीय माना जाता है । पाचन पर जो खनिज तत्व बनाते हैं व सब क्षारीय होते हैं ।
अम्लीय आहार – मनुष्य द्वारा निर्मित आहार प्रायः अम्लीय होता है जिससे एसीडिटी होती है । जैसे तले-भूने पदार्थ, दाल, चावल, कचैरी, सेव, नमकीन, चाय, काॅफी, शराब, तंबाकु, डेयरी उत्पाद, प्रसंस्कृत भोजन, मांस, चीनी, मिठाईयां, नमक, चासनी युक्त फल, गर्म दूध आदि के सेवन से अम्लता बढ़ती है ।
क्षारीय आहार  प्रकृति द्वारा प्रदत आहार (अपक्वाहार) प्रायः क्षारीय प्रभाव उत्पन्न करते हैं । जैसे ताजे फल, सब्जियां, अंकुरित अनाज, पानी में भीगे किशमिश, अंजीर, धारोष्ण दूध, फलियां, छाछ, नारियल, खजूर तरकारी, सुखे मेवे, आदि पाचन पर क्षारीय हैं ।ज्वारे का रस क्षारीय होता है । यह हमारे शरीर को एल्कलाइन बनाता है । शरीर के द्रव्यों को क्षारीय बनाता है । खाने का सोड़ा क्षारीय बनाता है ।
बीमारीयों की पहचान:- नाभी चिकित्‍सा में बीमारीयों को पहचानने की कई विधियॉ प्रचलन में है परन्‍तु मुख्‍य रूप से निम्‍न परिक्षण मूल रूप से किये जाते है । 
1- स्‍पर्श परिक्षण :- इस में मरीज के शरीर का स्‍पर्श परिक्षण किया जाता है जिससे शरीर का तापक्रम मालुम होता है , नाडी परिक्षण , दृष्टि परिक्षण मरीज को देखकर ,ऑखों का परिक्षण , जीभ तथा मल मूत्र का परिक्षण जो सामान्‍यत: उनके रंग गंध आदि से पहचाना जाता है ।  
2- नाभी परिक्षण :- नाभी चिकित्‍सा में रोग को पहचान ने के लिये मूल परिक्षण है, नाभी परिक्षण, चूंकि नाभि चिकित्‍सकों का मानना है कि मनुष्‍य के समस्‍त प्रकार के रोगों का परिक्षण मात्र नाभी की बनावट उसकी धारीयों एंव नाभी स्‍पंदन से आसानी से पहचाना जा सकता है ।
नाभी चिकित्‍सा में सर्वप्रथम नाभी की बनावट उसके आकार प्रकार  एंव उसकी स्थिति से रोग की पहचान की जाती है ।
3-अम्‍ल क्षार परिक्षण :- इस परिक्षण से यह ज्ञात हो जाता है कि रोगी के शरीर में अम्‍ल व क्षारीयता की क्‍या स्थिति है जो रोग का मूल कारण है । यह परिक्षण उन रोगीयों पर ही किया जा सकता है जिसकी नाभी गहरी होती है एंव उसके अन्‍दर मैल की परत हो तथा उसमें से गंध आती हो । इसका मूल कारण यह है कि हमारे शरीर से निकलने वाले पसीन से शरीर के वे तत्‍व रस या रसायन की मात्राये निरंतर निकलती रहती है चूंकि शरीर में नाभी मात्र एक ऐसा अंग है जहॉ पर पसीना असानी से रूक जाता है एंव सूखने पर वह मैल की परत के रूप में शरीर से चिपका रहता है ,शरीर के तापक्रम एंव निरंतर सम्‍पर्क की वहज से जो तत्‍व शरीर से निकलते रहते है वह उचित परिणाम में सुरक्षित रहते है इससे कभी कभी नाभी में वैक्‍टेरिया भी पलने लगते है ये वेक्‍टेरिया शरीर को किसी भी प्रकार का नुकसान नही पहूचाते बल्‍की शरीर की सुरक्षा करते है इस मैल से एंव वैक्‍टेरिया से शरीर की अम्‍ल एंव क्षारीयता की स्‍थिति का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है जैसे गंध से यदि गंध खटटी है तो अम्‍ल एंव यदि गंध कडुवी या कसैली है तो क्षारीय ।
लिटमस या हल्‍दी परिक्षण :- गहरी नाभी के मरीज की अम्‍ल क्षारीयता का पता लगाने के लिये उसकी नाभी पर पहले शुद्ध पानी डाले फिर उसके अंदर के मैल को किसी साफ वस्‍तु से इस प्रकार धोले ता‍कि अन्‍दर के मैल की परत उसमे अच्‍छी तरह से धुल जाये इसके बाद उसके अन्‍दर हल्‍दी से बनी रोली डाल दे यदि वह लाल हो जाये तो समक्षे शरीर क्षारीय है एंव यदि वह पीली हो जाये तो समक्षे शरीर में अम्‍ल की मात्रा बढ रही है जो घातक है ।
हल्‍दी की रोली की जगह आप चाहे तो लिटमस पेपर को डाल कर भी यह परिक्षण आसानी से कर सकते है ।
पर हल्‍दी शरीर से निकलने वाले इस तत्‍व में अम्‍ल व क्षार यह सूखा हुआ को कर
(अ):- नाभी की स्थिति :-यदि नाभी की स्थिति शरीर के मध्‍य में है तो ऐसा व्‍यक्ति निरोगी होता है । यदि नाभी मध्‍य में न होकर कुछ नीचे को है तो ऐसे व्‍यक्तियों को पेट के नीचे पाये जाने वाले अंगों से सम्‍बन्धित बीमारीयॉ अधिक होती है । ऊपर की तरुफ है तो उसे पेट के उपर पाये जाने वाले अंगों से सम्‍बन्धित बीमारीयॉ होती है ।
यदि नाभी की स्थिति बिलकुल मध्‍य में न होकर दायी तरुफ होती है तो ऐसे मरीजो को पेट पर पाये जाने वाले दॉये अंग से सम्‍बन्धित रोग हो सकता है ठीक इसी प्रकार यदि बॉये तरुफ है तो बॉये अंग से सम्‍बन्धित बीमारीयॉ हो सकती है ।
उपरोक्‍त स्थिति का अध्‍ययन पेट पर पाये जाने वाले वृत के अध्‍ययन से किया जा सकता है का आकार
(ब) नाभी की बनावट :-हर व्‍यक्तियों की नाभी की बनावट अलग अलग होती है यहॉ तक की जुडवा संतानों के शरीर की बनावट भले एक सी हो परन्‍तु उनके नाभी का आकार प्रकार व बनावट अलग अलग होगी ,ठीक उसी प्रकार से जैसे हाथों की रेखाये हर व्‍यक्तियों की अलग अलग होती है । नाभी के आकार प्रकार एंव बनावट से नाभी चिकित्‍सक रोग की पहचान करते है ।
यदि नाभी ऊपर को डण्‍टल की तरह से उठी हुई है तो ऐसे व्‍यक्तियों को गैसे अपच आदि की शिकायत हो सकती है । अन्‍दर को धॅसी हुई गहरी नाभी इस प्रकार के रोगी को स्‍वस्‍थ्‍य माना जाता है परन्‍त उक्‍त दोना बनावट के साथ अन्‍य स्थितियों जैसे धारीयों की बनावट एंव नाभी के आकार को भी आधार माना जाता है ।
(स)नाभी धारीयॉ या रेखा:- इसमें नाभी धारीयॉ एंव नाभी बनावट मुख्‍य रूप से है जैसे नाभी की बनावट में यदि नाभी का आकार जिस ओर होता है उस तरुफ के अंग रोगग्रस्‍त होते है इसी प्रकार नाभी धारीयॉ की स्थिति का भी पता लगाया जाता है जैसे नाभी धारी या जिसे नाभी रेखा भी कहते है । यदि नाभी धारी की बनावट या स्थिति जिस ओर इसारा करती है उसी तरुफ के अंगों से सम्‍बन्धित रोग होता है । यह बडी ही सरल विधि है । परन्‍तु इसे बारीकी से समक्षना चाहिये तभी रोग का परिक्षण का परिणाम उचित होगा । इस परिक्षण हेतु नाभी वृत परिक्षण चार्ट को देखिये ।
(द) नाभी धारीयों का रंग :- नाभी धारीयों के मध्‍य रंग व गंध पाई जाती है , दक्ष नाभी चिकित्‍सा रोगों की पहचान नाभी धारीयों के रंग व गंध से आसानी से कर लेता था । नाभी के अन्‍दर से गंध का रोग पहचान में बडा महत्‍व है चूंकि जैसा कि आप सभी इस बात को अच्‍छी तरह से जानते है कि नाभी ही एक ऐसा अंग है जिसमें शरीर से निकलने वाला पसीना या व्‍यर्थ पदार्थ आसानी से कई कई दिनों तक छिपे रहते है यहॉ तक की कई व्‍यक्तियों की नाभी में जो पदार्थ छिपे रहते है वह उनके जन्‍म के समय से ही छिपे रहते है फिर शरीर के तापमान आदि की वहज से उसमें ऐसे वेक्‍टेरिया पनपने लगते है जो शरीर के रक्षक होते है इन वेक्‍टेरिया से शरीर को नुकसान नही होता ।
नाभी परिक्षण की स्थितिया :-नाभी का परिक्षण खाली पेट सुबह करना चाहिये । नाभी परिक्षण से पूर्व यदि नाभी टली है तो इसकी जानकारी हेतु रोगी के हाथों को आपस में इस प्रकार से मिलाये कि हाथेली पर जो रेखाये है उसे मिलाने पर यदि हाथ की दोनों अंगुलियॉ समान है तो नाभी यथास्‍थान है परन्‍तु यदि नाभि टली है तो यह अंगुलियों की साईज में अंतर होगा । इसी प्रकार रोगी को जमीन पर सीधा लिटा दीजिये इसके बाद उसकी नाभी से दोनों निप्‍पल की दूरियों को नापिये यदि ये दोनो बराबर है तो नाभी यथा स्‍थान है यदि इनकी दूरियों में अन्‍तर है तो नाभी टली हुई होगी । इसी प्रकार रोगी के पैरो के अंगूठे को मिलाने पर भी यह स्थिति मालुम की जा सकती है । नाभी परिक्षण की आर्दश स्थितियॉ निम्‍नानुसार है ।
1-रोगी को सीधा लिटा दीजिये इसके बाद उसे कहिये कि वह पेट को सामान्‍य स्थिति में रखे अपने हाथों की तीन अंगुलि क्रमश: तर्जनी मध्‍यमा एंव अनामिका अंगुलियों को आडी रेखा में रखे इसके बाद धीरे धीरे दबाब देते हुऐ नाभी के स्‍पंदन को मालुम करे । चूंकि नाभी पर यह स्‍पंदन कुछ लोगों में बडी मुश्किल से मिलता है कुछ लोगों में प्रथम स्तिरीय दबाब में मालुम हो जाता है तो कुछ लोगों में यह तृतिय स्तिरीय दबाब देने पर एंव रोगी के श्‍वास पर नियत्रंण से मालूम होती है ऐसा प्राय: जब होता है जब यह रोग काफी पुराना हो जाता है ।
1-      प्रथम स्तिरीय दबाब:- रोगी को सीधा लिटाने के बाद अपनी तीनों अंगूलियों से धीमें से दबाब दिया जाता है इसे प्रथम स्तिरीय दबाब कहते है ।
2-      द्वितिय स्तिरीय दबाब :- यह दबाब प्रथम स्तिरीय दबाब से अधिक होता है इस दबाब को मध्‍यमा दबाब भी कहते है ।
3-      तृतिय स्तिरीय दबाब :- यह दबाब उक्‍त दोनों दबाब से अधिक होता है बल्‍की इस दबाब में कभी कभी मरीज के पेट पर अत्‍याधिक दबाब की वहज से वह परेशानी अनुभव करने लगता है तथा आप की अंगुलियों में उसके पेट के अन्‍दर के भाग महशूस होने लगते है ।
4-      श्‍वास पर नियंत्रण :- नाभी परिक्षण करते समय या दबाब देते समय मरीज से कहे वह अपने श्‍वास को कुछ देर के लिये रोके रहे ऐसा करने से नाभी का स्‍पंदन स्‍पष्‍ट अंगुलियों पर महसूस होने लगता है ।
5-      लेटरल पोजिशन :- जिस प्रकार आप ने मरीज को सीधे लिटा कर उसकी नाभी का परिक्षण किया था अब आप को उसे आडी स्थिति में पहले दॉयी तरफ फिर बाई करवट लेने को कहे फिर उपर बतलाई गयी विधि से परिक्षण करे ।
6-      सीधे बैठाल कर तृतिय स्तिरीय परिक्षण :- इस स्थिति में मरीज को किसी कुर्सी आदि में शांन्‍त मुद्रा में बिठा कर उसकी नाभी का उपरोक्‍त प्रथम द्वतिय तथा तृतिय स्तिरीय परिक्षण करते है ।
7-      अन्तिम परिक्षण में मरीज को सीधे खडा कर उसकी नाभी का उपरोक्‍तानुसार परिक्षण करते है परन्‍तु तृतिय परिक्षण में उसे श्‍वास रोकने को कहे एंव यह अंतिम परिक्षण है जिसमें उपरोक्‍त परिक्षणों में नाभी का स्पिंदन जिस ओर मिलता है उसकी स्थिति बिलकुल स्‍पष्‍ट हो जाती है । उक्‍त सात स्थितियों के परिक्षण से नाभी की गलत स्थिति की संभावना नही होती । यह परिक्षण इस लिये भी अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण हो जाता है कि (इसे कनफरमेशन टेस्‍ट कहते है) इसमे नाभी स्‍पंदन के जो परिणाम लिये जा रहे है उसमें कभी कभी नाभी स्‍पंदन की स्थितियॉ कुछ पोजिशन में बदल जाती है जो मरीज के उठने बैठने लेटने या श्‍वास गति आदि की वजह से भी होती है कभी कभी तो नाभी के टलने की स्थितियों के बदलने के कारण भी हो सकती है ऐसी स्थिति में यह स्थिति स्‍पष्‍ट नही हो पाती परन्‍तु उपरोक्‍त प्रकार से परिक्षण करने पर स्थितिया स्‍पष्‍ट हो जाती है । परन्‍तु बार बार नाभी स्‍पंदन के स्‍थान बदलने पर कई बार स्थिति स्‍पष्‍ट नही होती इससे एक तो बीमारीयों को पहचानने में असुविधा होती है दूसरा नाभी को यथास्‍थान लाने की क्‍लासिक पैटर्न या एकल स्‍पंदन विधि का पालन नही होता ऐसी स्थिति में उपरोक्‍त सात प्रकार की स्थितियों से यह समस्‍या हल हो जाती है यदि इसके बाद भी स्थिति स्‍पष्‍ट न हो तो रोगी को बिलकुल खाली पेट रखते हुऐ पहला परिक्षण करे इसके बाद उसे पानी या दूध पिला कर नाभी का परिक्षण उपरोक्‍त सातों प्रकार से करे या फिर खाली पेट पेट की मालिश कराने के बाद परिक्षण करे । खाली पेट पेट की मालिश करने के बाद नाभी के टलने पर स्‍पंदन की स्थिति स्‍पष्‍ट हो जाती है ।   


नाभी परिक्षण से रोग की पहचान एंव निदान {डॉ0कृष्‍णभूषण सिंह}


           नाभी परिक्षण से रोग की पहचान एंव निदान
हमारे शरीर में व्‍यर्थ सी दिखने वाली नाभी के महत्‍व पर आधुनिक चिकित्‍सा विज्ञान भले ही मौन हो ,परन्‍तु इसके महत्‍व को पश्‍चात्‍य चिकित्‍सा पद्धति को छोडकर ,विश्‍व की अनेक उपचार विधियों जैसे अध्‍यात्‍म ,योगा, प्राकृतिक चिकित्‍सा ,ची नी शॉग,नाभी स्‍पंदन से रोगों की पहचान एंव निदान आदि में इसके महत्‍व पर प्रकाश डाला गया है । चूंकि पश्‍चात चिकित्‍सा व संस्‍कृत्ति के अंधानुकरण की वहज से इसका महत्‍व धीरे धीर कम होता चला गया , चॅद जानकार व्‍यक्तियों ने इसे अपने तक ही सीमित रख, इसके आशानुरूप परिणामों से धन व यश प्राप्‍त करते रहे । शारीरिक रोग हो या सौन्‍र्द्धय समस्‍याओं का निदान, बिना किसी दबा दारू के आसानी से किया जा सकता है । चूंकि नाभी 72000 नाडीयों का संगम स्‍थल है । हमारे शरीर की संसूचना प्रणाली एंव नर्व सिस्‍टम का सम्‍बन्‍ध नाभी से है । चीन की परम्‍परागत उपचार विधि ची नी शॉग का मानना है कि समस्‍त प्रकार की बीमारीयॉ पेट से ही उत्‍पन्‍न होती है ,पेट ठीक रहेगा तो स्‍वास्‍थ्‍य ठीक रहेगा । यदि पेट याने आप का पाचन तंत्र खराब होगा , तो आप उपर से देखने में भले ही स्‍वस्‍थ्‍य होगें परन्‍तु इससे आप के शरीर का रस एंव रसायन का संतुलन बिगडने लगता है । इससे कुछ लोगों को भूख नही लगती ,पेट में गैस का बनना ,खटटी डकारे ,पेट का साफ न होना जैसे प्रथम लक्षण उत्‍पन्‍न होने लगते है और यह तो आज की जीवन शैली की वजह से 80 प्रतिशत लोगो में देखी जा सकती है । इस रस एंव रसायन के असंतुलन के भविष्‍यात परिणाम बडे ही गम्‍मीर होते है जैसे हिदय ,किडनी ,मधुमेह मृगी ,हिस्‍टीरिया,मानसिक रोग ,तनाव दमा ,टी बी कैंसर आदि
  भारतीय प्राचीन आयुर्वेद चिकित्‍सा पद्धति में भी कहॉ गया है कि बीमारीयों का मूल कारण पेट है ।
  हमारे शरीर का पोषण, गृहण किये भोज्‍य पदार्थो के पाचन क्रिया पश्‍चात उत्‍पन्‍न रसो के रसायनिक परिवर्तनों की समानता से होता है । जब तक रस एंव रसायनिक सन्‍तुलन बना रहेगा प्राणी स्‍वस्‍थ्‍य व दीर्धायु होगा ,रस एंव रसायनिक परिवर्तन में नाम मात्र की असमानता से स्‍वास्‍थ्‍य एंव शरीर प्रभावित होने लगता है ,इस क्षणिक रस रसायनों की असमानता जब तक किसी रोग में परिवर्तन नही हो जाती हमे समक्ष में नही आती जैसे रात्री में नीद न आना,तनाव ,भूख न लगना, आलस ,गैस बनना ,जल्‍दी थकान ,त्‍वचा की स्‍वाभाविकता कम होना ,बालों का झडना समय से पहले त्‍वचा पर झुरूरीयॉ ,एक निश्चित उम्र के बाद भी शारीरिक विकाश का न होना, स्‍त्रीयों में स्‍त्री सुलभ अंगों का विकसित न होना ,मोटापा ,बॉझपन, मस्‍से, मुंहासे इसी प्रकार के और भी कई उदाहरण है । जिन्‍हे हम प्राय: गंम्‍भीरता से नही लेते परन्‍तु रस रसायनों के इस क्षणिक परिवर्तन के ये प्रारम्‍भिक लक्षण है जिन्‍हे नजर अंदाज नही करना चाहिये ।
  विभिन्‍न प्रकार की बीमारीयॉ हो या सौन्‍र्द्धर्य समस्‍याओं का निदान ची नी शॉग एंव नाभी स्‍पंदन से रोग पहचान एंव निदान , परम्‍परागत उपचार विधि , एंव न्‍यूरौथैरापी में प्राय: प्राय: एक ही सा है इस उपचार विधि विशेषकर ची नी शॉग उपचार में यह माना गया है कि पेट में रस रसायनिक परिवर्तन के साथ सम्‍पूर्ण शरीर के क्रियाकलापों के आवश्‍यक अंग यहॉ पर विद्यमान होते है । अत: स्‍वास्‍थ्‍य परिवर्तन रोगावस्‍था या रस एंव रसायन की असमानता सौर्द्धय समस्‍या, स्‍वस्‍थ्‍य दीर्धायु हेतु पेट को टारगेट किया जाता है । जिस प्रकार आयुर्वेद चिकित्‍सा में रोगी की नाडी का परिक्षण किया जाता है ठीक इसी प्रकार से इस उपचार विधि में सर्वप्रथम नाभी का परिक्षण किया जाता है यह परिक्षण दो प्रकार से किया जाता है ।
1-भौतिक परिक्षण :- इसमें रोगी की नाभी बनावट उस पर पाई जाने वाली धारीयों की बनावट एंव उसकी स्थिति का परिक्षण किया जाता है ।
 2-नाभी स्‍पंदन का परिक्षण:-
इस परिक्षण में नाभी पर तीन अंगुलियों को रख कर नाभी के स्‍पंदन को ज्ञात किया जाता है । यदि यह स्‍पंदन नाभी के बीचों बीच है तो व्‍यक्ति स्‍वस्‍थ्‍य एंव दीर्धायु होता है । यदि यह सूई की नोक के बराबर भी खिसकती है तो व्‍यक्ति के रस ,रसायन में असमानता उत्‍पन्‍न होने लगती है एंव व्‍यक्ति के स्‍वास्‍थ्‍य एंव उसके विकास दैनिक कार्यो में परिवर्तन प्रारम्‍भ होने लगता है जो आगे चलकर रोग में परिवर्तित हो जाता है । इस उपचार विधि में नाभी का स्‍पंदन जिस दिशा में होता है उसी दिशा की ओर नाभी धारीयॉ दिखलाई देती है इससे उस दिशा पर पेट में पाये जाने वाले अंतरिक अंगों में खराबीयॉ होती है । जिसकी पहचान उसी दिशा मे पेट से लेकर अंतिम छोर तक दबाब देते हुऐ परिक्षण करने पर उस जगह पर र्दद या असमान्‍य सी स्थिति देखी जाती है । तत्‍पश्‍चात उसे टारगेट कर सक्रिय किया जाता है ऐसा करने से वहॉ के अंगों में सक्रियता उत्‍पन्‍न हो जाती है अंन्‍य सुसप्‍तावस्‍था वाले अंग जैसे संसूचना तंत्र ,नर्वसतंत्र तथा वहॉ पर पाये जाने वाले अंग सक्रिय हो कर अपना अभीष्‍ट कार्य करने लगते है । टारगेट किये गये भाग को सक्रिय करने से रस रसायन भी सक्रिय हो कर समान अवस्‍था में आ जाते है । टारगेट अंगों को सक्रिय करने हेतु परम्‍परागत विधि में उस स्‍थान पर आयल लगा कर मिसाज किया जाता है । आधुनिक विधि में कपिंग तथा वायवेटर यंत्र के माध्‍यम से उस अंग को सक्रिय किया जाता है इसके बहुत ही अच्‍छे परिणाम मिले है । इस उपचार विधि की जानकारीयॉ नेट पर उपलब्‍ध है ची नी शॉग टाईप कर इसकी फाईले एंव वीडियों आदि देख सकते है । इन साईड पर इसका नि:शुल्‍क पत्राचार प्रशिक्षण उपलब्‍ध है स्। battely2.blogspot.com

                                          डॉ0कृष्‍णभूषण सिंह
                                          मो0 9926436304
                             krishnsinghchandel@gmail.com
 









पैथालाजी रोग एंव होम्‍योपैथिक डॉ0 सत्‍यम सिंह चन्‍देल


            पैथालाजी रोग एंव होम्‍योपैथिक (विकृति विज्ञान)
    
होम्‍योपैथिक एक लक्षण विधान चि‍कित्‍सा पद्धति है इसमें किसी रोग का उपचार नही किया जाता बल्‍की लक्षणों को ध्‍यान में रखकर औषधियों का र्निवाचन किया जाता है । परन्‍तु कई पैथालाजी परिक्षण उपरान्‍त जब यह सिद्ध हो जाता है कि रोगी को बीमारी क्‍या है ऐसी अवस्‍था में लक्षणों को ध्‍यान में रख कर औषधियों का निर्वाचन तो किया ही जसतस है परन्‍तु पैथालाजी के परिणामों को ध्‍यान में रख निर्धारित औषधियों के प्रयोग से परिणाम भी आशानुरूप प्राप्‍त होते है ।

      रक्‍त में पाई जाने वाली कोशिकाओं की बनावट उसकी संख्‍या में वृद्धि या कमी से विभिन्‍न प्रकार के रोग होते है ।
         रक्‍त में तीन प्रकार की कोशिकायें पाई जाती है
1-इथ्रोसाईट (आर बी सी )
2-ल्‍युकोसाईट (डब्‍लू बी सी )
3-थम्‍ब्रोसाईट (प्‍लेटलेटस )
            1-इथ्रोसाईट (आर बी सी ) लाल रक्‍त कणिकायें :-
लाल रक्‍त कणिकायें या  आर बी सी की संख्‍या के घटने बढने की दो अवस्‍थायें निम्‍नानुसार है ।
(अ) इथ्रोसाईटोसिस या पोलीसाईथिमिया (बहु लोहित कोशिका रक्‍तता या लाल रक्‍त कण का बढना) :-जब रक्‍त में आर बी सी की संख्‍या बढ जाती है तो ऐसी स्थिति को इथ्रोसाईटोसिस (बहु लोहित कोशिका रक्‍तता या लाल रक्‍त कण का बढना )या पॉलीसाईथिमिया कहते है ।
(ब) इथ्रोसाईटोपैनिया (लोहित कोशिका हास या लाल रक्‍त कण की कम होना) :- जब रक्‍त में लाल रक्‍त कणों की मात्रा घट जाती है तो ऐसी स्थिति को इथ्रोसाईटोपैनिया (लोहित कोशिका हास या लाल रक्‍त कण की कम होना)कहते है । 
               2-ल्‍युकोसाईट (डब्‍लू बी सी )
      श्‍वेत रक्‍त कोशिकाये या डब्‍लू बी सी की संख्‍या के कम या अधिक होने की दो अवस्‍थाये निम्‍नानुसार है ।
 (अ) ल्‍युकोसायटोसिस (श्‍वेत कोशिका बाहुलता या श्‍ेवत रक्‍त कणों की वृद्धि) :- रक्‍त में जब श्‍वेत रक्‍त कोशिकाओं की मात्रा बढ कर 10000 प्रतिधन मि मी से ऊपर पहूंच जाती है तो ऐसी स्थिति को श्‍वेत कोशिका बहुलता कहते है   स्‍वस्‍थ्‍य मनुष्‍य में इसकी संख्‍या 5000 से 9000 प्रतिधन मिली होती है परन्‍तु रोगजनक अवस्‍थाओं में इसकी संख्‍या बढ जाती है । रूधिर कैंसर जिसमें ल्‍यूकोसाईटस की संख्‍या बढ जाती है ।
(ब) ल्‍युकोपेनिया (श्‍ेवत कोशिका अल्‍पता या श्‍ेवत रक्‍त कणों का घटना ):- जब श्‍ेवत रक्‍त कोशिकाओं की संख्‍या घट कर 4000 प्रतिघन मी मी रक्‍त में कम हो जाती है तो ऐसी स्थिति को श्‍वेत कोशिका अल्‍पता या रक्‍त में श्‍वेत रक्‍त कणों का घटना ल्‍युकोपेनिया कहलाता है ।
ल्‍युकोसायटोसिस :- रक्‍त में जब श्‍वेत रक्‍त कोशिकाओं की मात्रा बढ कर 10000 प्रतिधन मि मी से ऊपर पहूंच जाती है तो ऐसी स्थिति को श्‍वेत कोशिका बहुलता कहते है   स्‍वस्‍थ्‍य मनुष्‍य में इसकी संख्‍या 5000 से 9000 प्रतिधन मिली होती है परन्‍तु रोगजनक अवस्‍थाओं में इसकी संख्‍या बढ जाती है ।
1-रक्‍त में डब्‍लू बी सी की अधिकता ल्‍यूकोसाईटोसिस :- यदि रक्‍त में डब्‍लू बी सी की अधिकता है तो ऐसी स्थिति में बैराईटा आयोड 30 शक्‍ती में छै: छै: घन्‍टे के अन्‍तराल से प्रयोग करने से उब्‍लू बी सी की मात्रा कम होने लगती है (डॉ0घोष)
 (अ) लाल रक्‍त कणिकाओं का बढना एंव श्‍वेत रक्‍त कणिकाओं का घटना :- डॉ0 घोष ने लिखा है कि बैराईटा म्‍योरटिका से शरीर की लाल रक्‍त कणिकाये घट जाती है और श्‍वेत कण बढ जाते है ।
 (ब) डब्‍लू बी सी बढने पर :- रक्‍त में श्‍वेत रक्‍त कण के बढने पर पायरोजिनम दबा का प्रयोग करना चाहिये ।
 (स) रक्‍त में डब्‍लू बी सी की अधिकता :- यदि रक्‍त में डब्‍लू बी सी की अधिकता के साथ ग्रन्थियों में गांठे हो तो आर्सेनिक एल्‍ब , आर्सैनिक आयोडेट 3 एक्‍स में प्रयोग करना चाहिये ,फेरम फॉस एंव नेट्रम म्‍यूर ,पिकरिक ऐसिड दबाओं का भी लक्षण अनुसार प्रयोग किया जा सकता है । डॉ0बोरिक ने लिखा है कि डब्‍लू बी सी की अधिकता में फेरम फॉस उत्‍तम दबा है उन्‍होने कहॉ है कि रक्‍त कणिका जन्‍य रोग एंव शिथिल मॉस पेशीय जन्‍य रोग आदि में आयरन प्रथम दबा है । लोहे की कमी जनित अवस्‍थाओं में आयरन देने अर्थात फेरम फॉस दवा देने से मॉस पेशियॉ सबल एंव रक्‍त वाहिनीय उपयुक्‍त चाप के साथ संकुचित होकर रक्‍त संचार में सुधार लाती है । यह दबा लाल रक्‍त कणों की कमी ,बजन व शक्ति की कमी में अच्‍छा कार्य करती है । कहने का अर्थ यह है कि रक्‍त में आयरन की कमी होने से रक्‍त सम्‍बन्धित जो भी व्‍याधियॉ होती है उसमें फेरम फॉस अच्‍छा कार्य करती है लाल रक्‍त कणों की कमी एंव श्‍वेत रक्‍त कणों की वृद्धि में इस दबा को 6 या 12 एक्‍स में लम्‍बे समय तक प्रयोग करना चाहिये ।
2-ल्‍युकोपेनिया (श्‍वेत रक्‍त कोशिका अल्‍पता ):- जब श्‍ेवत रक्‍त कोशिकाओं की संख्‍या घट कर 5000 प्रति धन मी मी रक्‍त में कम हो जाती है तो ऐसी स्थिति को ल्‍युकोपेनिया या श्‍वेत रक्‍त कोशिका अल्‍पता कहते है ।
1-यदि रक्‍त में श्‍वेत रक्‍त कण घटते हो :- यदि रक्‍त में डब्‍लू बी सी घटता हो तो ऐसी स्थिति में क्‍लोरमफेनिकाल दबा का प्रयोग किया जा सकता है । यह दबा प्रारम्‍भ में 30 या इससे भी कम शक्ति की दबा का प्रयोग नियमित एंव लम्‍बे समय तक लेते रहना चाहिये , लाभ होने पर धीरे धीरे उच्‍च से उच्‍चतम शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है
 हीमोग्‍लोबीन :- स्‍वस्‍थ्‍य व्‍यक्ति के शरीर में रक्‍त के लाल पदार्थ को हीमोग्‍लोबीन कहते है हीमोग्‍लोबिन के प्रतिशत का गिर जाना रक्‍त अल्‍पता का कारण बनता है 100 एम एल में रक्‍त रंजक की मात्रा लगभग 15 ग्राम पाई जाती है । रक्‍त में हीमोग्‍लोबीन की कमी
रक्‍त में हीमोग्‍लोबिन की कमी :-यदि रक्‍त में हिमोग्‍लोबिन की कमी है तो फेरम फॉस 3 एक्‍स या 6 एक्‍स शक्ति में प्रयोग करना चाहिये ।
लाल रक्‍त कणों की संख्‍या बढाने हेतु :- रक्‍त में लाल रक्‍त कणों की कमी को हिमोग्‍लोबिन की कमी कहते है । इस अवस्‍था में जिंकम मैटालिकम दबा का प्रयोग किया जा सकता है । कुछ चिकित्‍सक फेरम मेल्‍ट एंव फेरम फॉस दबा को लाल रक्‍त कणों की संख्‍या बढाने हेतु पर्यायक्रम से प्रयोग करते है ।
हिमोफिलीयॉ रक्‍त स्‍त्रावी प्रकृति :- हिमोफिलीयॉ में नेट्रम सिलि,फासफोरस दबाओं का प्रयोग किया जा सकता है ।
    (अ) रक्‍त स्‍त्राव डॉ नैश की इस करिश्‍माई दबा को रक्‍त स्‍त्राव में प्रयोग किया जाता है रक्‍त लाल चमकदार होता है यह शरीर के किसी भी स्‍वाभाविक अंगों से निकले जैसे नकसीर,उल्‍टी,लेट्रींग आदि इसमें मिलीफोलियम क्‍यू (मदर टिंचर) या 30 देने से लाभ होता है ।
रक्‍त में टॉक्‍सीन को दूर करना :- रक्‍त के टॉक्‍सीन को दूर करने के लिये बैनेडियम दवा का प्रयोग करना चाहिये इसके प्रयोग से रक्‍त के दूषित पदार्थ नष्‍ट हो जाते है इस दवा की क्रिया रक्‍त के दूषित पदार्थो को नष्‍ट करना तथा आक्‍सीजन देना है । इस दबा का प्रयोग निम्‍न शक्ति में नियमित व लम्‍बे समय तक प्रयोग करा चाहिये ।
चर्म रोगों में रक्‍त को शुद्ध करने हेतु :- चर्म रोग की दशा में रक्‍त को शुद्ध करने के लिये सार्सापैरिला दबा का प्रयोग किया जा सकता है ।
बार बार फूंसियॉ रक्‍त शोधक :- यदि बार बार फुंसियॉ हो तो गन पाऊडर का प्रयोग करना चाहिये इस दबा के प्रयोग से रक्‍त शुद्ध होता है यह रक्‍त को शक्ति देती है ।
गनोरिया :- डॉ0 सत्‍यवृत जी ने लिखा है कि गनोरिया में कैनाबिस सिटावम सी एम शक्ति में प्रयोग करना चाहिये । इस दबा का असर चार पॉच दिन बाद होता है उन्‍होने लिखा है कि यदि इससे भी परिणाम न मिले तो मदर टिन्‍चर में दबा देना चाहिये ।
प्रोस्‍टेट ग्‍लैन्‍डस :- डॉ0 कैन्‍ट कहते है कि प्रोस्‍टटे ग्‍लैड की डिजिटेलिस प्रमुख दबा है  
त्‍चचा में कही भी तन्‍तुओं की असीम वृद्धि :- त्‍वचा में कही भी तन्‍तुओं की असीम वृद्धि होने पर हाईड्रोकोटाईल 6 या 30 में देना चाहिये ।
नॉखून बाल व हडिडयों के क्षय में :- नॉखून , बाल व हडिडयों के क्षय में फोलोरिक ऐसिड दवा का प्रयोग करना चाहिये ।
गुर्दा रोग (नेफराईटिस) गुर्दा रोग:- जिसमें किडनी के नेफरान याने छन्‍ने में सूजन आ जाती है जिसके कारण रक्‍त छनता नही है एंव पेशाब की निकासी का कार्य उचित ढंग से नही होता ,इससे रक्‍त में यूरिया की मात्रा बढ जाती है । इसे गुर्दे की बीमारी में शरीर में सूजन आ जाती है । गुर्दे की इस बीमारीयों में निम्‍नानुसार दवाओं का चयन किया जा सकता है ।
    (अ) पेशाब में एल्‍बुमिन का आना :- पेशाब में एल्‍बुमिन आने पर हैलिबोरस दबा का प्रयोग किया जा सकता है इस अवस्‍था मे सार्सापेरिला दबा भी उपयोगी है ।
    (ब) पेशाब में यूरिक ऐसिड का बढना :- पेशाब की परिक्षा में क्‍लोराईड अंश घटता और यूरिक ऐसिड परिणाम में बहुत बढ जाये तो बैराईटा म्‍यूर का प्रयोग किया जाना चाहिये ।  
    (स) पेशाब में यूरिया अधिक बनने पर :- यदि पेशाब में यूरिया अधिक आने लगे तो कास्टिकम दबा का प्रयोग करना चाहिये (डॉ0 आर हूजेस) ।
    रक्‍त का एक स्‍थान में संचय होना (हाईपेरीमिया) :- रक्‍त के एक ही स्‍थान पर संचय होने को हाइपेरीमिया कहते है रक्‍त हीनता में कैल्‍केरिया फॉस के बाद फेरम फॉस दवा अच्‍छा कार्य करती है ऐसी स्थिति में फेरम फॉस तथा कैल्‍केरिया सल्‍फ का प्रयोग प्रयार्यक्रम से करना चाहिये ।
                        ऐपेण्डिक्‍स
  एपेण्डिक्‍स पेट में दाहिनी तरफ एक नली होती है जो बडी ऑत से अन्तिम छोर से जुडी होती है इसका प्रयोग मानव शरीर में प्राय: नही होता ,इसका उपयोग ऐसे जानवरों में होता है जो भोजन आदि को स्‍टॉक कर लेते है एंव जुगाली करते हे । इस नलीका में प्रेशर या नलिका कमजोर होने की स्थिति में अधिक दबाओं आदि के कारण भोजन आदि इसमें फॅस कर सडने लगता हो या फिर अधिक दवाब के कारण इसके फटने का डर बना रहता है । यह हमारे शरीर का बेकार अंग है जिसका उपयोग नही है इसके कमजोर होने या भोज्‍य पदार्थो के फॅस जाने से इसमें कई प्रकार के उदभेद उत्‍पन्‍न हो जाते है । इससे पेट में दर्द होता है , यदि नलिका कमजोर हुई तो इसके फॅट जाने का खतरा बढ जाता है यह स्थिति अत्‍याधिक खतरनाक होती है । ऐपिन्‍डस के र्ददों व रोग स्थिति में निम्‍न दबाओं का प्रयोग किया जा सकता है ।
1- एपेण्डिक्‍स में आईरिस टक्‍ट 3 दवा को इस रोग की सर्वोत्‍कष्‍ट दबा है ।
2- एपेण्डिक्‍स की अवस्‍था में ब्राईयोनिया 200 एंव नेट्रम सल्‍फ 30 की दवा का प्रयोग करने पर अच्‍छे परिणा मिलते है । इससे र्दद भी दूर हो जाता है एंव रोग ठीक होने लगता है ब्रायोनिया 200 की दबा की एक खुराक प्रथम सप्‍ताह एं अगले सप्‍ताह एक खुराक 1 एम की देना चाहिये नेट्रम सल्‍फ 30 दबा का प्रयोग दिन में तीन बार लम्‍बे समय तक करना चाहिये । उपरोक्‍त ब्रायोनियॉ की दो मात्राये देने के बाद जब तक अगली दबा का प्रयोग न करे ऐसा करने पर यह देखे कि कब तक र्दद या रोग का आक्रमण दुबारा नही होता यदि सप्‍ताह में हो तो दूसरी मात्रा 1 एम में देना चाहिये ।



         डॉ0 सत्‍यम सिंह चन्‍देल
            (बी एच एम एस)
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