होम्योपैथिक के चमत्कार भाग-2
लेखक की शीघ्र प्रकाशित होने वाली पुस्तक (होम्योपैथिक के चमत्कार भाग-2 पुस्तक से)
होम्योपैथिक चिकित्सा का उदभव
लेखक की शीघ्र प्रकाशित होने वाली पुस्तक (होम्योपैथिक के चमत्कार भाग-2 पुस्तक से)
होम्योपैथिक चिकित्सा का उदभव
किसी ने सत्य ही कहॉ है, आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है । अपने समय के सफल एलोपैथिक चिकित्सक डॉ0क्रिश्चियन फेडरिक सैमुअल हैनिमन ने महसूस किया कि एलोपैथिक चिकित्सा जो विपरीत चिकित्सा विधान एंव अनुमान पर रह कर रोग उपचार किये जाने के सिद्धान्त पर आधारित है , इससे जो रोग है वह तो ठीक हो जाता है परन्तु रोगी औषधियजन्य रोगों की चपेट में आ जाता है, और यही उसकी मौत का कारण बनती है, उनका मन दु:ख से भर गया, उन्हे कई भाषाओं का ज्ञान था इसलिये उन्होने चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकों के अनुवाद के कार्य को अपने जीवकापार्जन का साधन बना लिया था , चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकों के अनुवाद करते समय एलोपैथिक मेटेरिया मेडिका में पढा कि सिनकोना कम्पन्न ज्वर अर्थात ठण्ड लग कर आने वाले बुखार को दूर करती है , और इसी के सेवन से कम्पन्न ज्वर उत्पन्न हो जाता है, अर्थात एक ही औषधि से दो प्रकार के विपरीत परिणमों ने उन्हे विचार करने पर मजबूर कर दिया, एक ही औषधि के दो विपरीत परिणमों ने एक नई चिकित्सा होम्योपैथिक के आविष्कार का सूत्रपात किया । हैनिमन सहाब ने सिनकोना के परिणामों का परिक्षण करने के उद्धेश्य से स्वयं सिनकोना का सेवन किया, इससे उन्हे कम्पन्न ज्वर उत्पन्न हो गया , और यही औषधि जब कम्पन्न ज्वर से ग्रसित मरीज को दिया गया तो वह ठीक हो गया बस यही एक ऐसा सूत्र था, जिसने एक नई चिकित्सा पद्धति का श्री गणेश किया । चूंकि एक ही औषधि के सेवन से दो विपरीत परिणाम प्राप्त किये जा सकते थे ,जैसाकि अपने परिक्षण में हैनिमैन सहाब ने देखा कि सिनकोना देने से एक स्वस्थ्य व्यक्ति को कम्पन्न ज्वर हो जाता है और वही दवा एक कम्पन्न ज्वर से ग्रसित रोगी को दी जाती है तो उसका कम्पन्न ज्वर ठीक हो जाता है, अर्थात एक स्वस्थ्य व्यक्ति को जो दवा दी जाती है उससे उसमें जो रोग के लक्षण उत्पन्न होते है, यदि वैसे ही लक्षण रोगी में उत्पन्न हो रहे हो तो वही उस रोग की दवा होगी । इसी परिक्षण क्रम में उन्होन बहुत सी औषधियों को स्वस्थ्य व्याक्तियों को दिया एंव जो लक्षण उत्पन्न हुऐ उसे लिपिवृद्ध करते गये , तथा उसी प्रकार के लक्षणों के रोगी पर उसी प्रकार के मिलते जुलते लक्षणों की दवा देकर परिणामों का परिक्षण किया जो आशानुरूप थे । चूंकि जैसे रोगी में रोग के जैसे लक्षण हो यदि वैसे ही लक्षण स्वस्थ्य व्यक्तियों को देने पर उभरते हो तो वही उस रोगी की दवा होगी , अर्थात सम से सम की चिकित्सा का प्रथम सिद्धान्त का उन्होने प्रतिपादन किया एंव इस नई चिकित्सा का नाम होम्योपैथिक इसी सिद्धान्त के आधार पर रखा ।
होम्योपैथी शब्द दो शब्दों से
मिलकर बना है, होमियोज और पैथी ,होमियोज ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है
सदृश या समान । पैथी का अर्थ विधान ,अर्थात होमियोपैथी से तात्पर्य उस उपचार
विद्या से है जो सदृश विधान पर आधारित हो , अर्थात होमियोपैथक चिकित्सा को सदृश
विधान चिकित्सा ,सम से सम कि चिकित्सा आदि नामों से भी पुकारा जाता है । होम्योपैथिक
में किसी रोग का उपचार न कर रोग लक्षणों का उपचार किया जाता है । इसलिये इस चिकित्सा
पद्धति से कई ऐसे रोग जिन्हे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान असाध्य कह कर छोड देता है,
उन्हे एक सफल होम्योपैथिक चिकित्सक अपनी औषधियों से आसानी से ठीक कर देता है ।
हैनिमैन सहाब को प्रथम सूत्र प्राप्त हो गया था, अब इसका दूसरा सूत्र, जो रोग उपचार या रोगी के
शरीर में उत्पन्न लक्षणों को पूरी तरह से शमन कर सकती है वह औषधि की कैसी मात्रा
या कौन सी शक्ति होगी । प्रारम्भ में उन्होने मूल अर्क (मदर टिचर ) का प्रयोग
किया ,इसके सेवन से औषधि अपने गुणधर्म के अनुसार रोगी के शारीर में लक्षण सीमित
समय में उत्पन्न कर देती थी , इसलिये उन्होन उसे तनुकृत कर शक्तिकृत करने के
लिये प्रारम्भ में एक भाग मूल औषधि में नौ भाग अनौषधिकृत वस्तु (व्हीकल) को
मिलाकर उसमें सौ झटके देने से 1एक्स शक्ति की दवा प्राप्त हुई इसी 1एक्स शक्ति
में पुन: 9 भाग अनौषधिकृत (व्हीकल) को मिला कर आगे की शक्तिकृत दवाओं का आविष्कार
करते गये, उन्होने महसूस किया कि मूल अर्क से शक्तिकृत दवाओं के परिणाम काफी
संतोषप्रद एंव आशानुरूप थे , इस दशमिक क्रम के बाद उन्होने महसूस किया कि इससे भी
उच्च शक्ति की औषधियों के परिणाम और भी अच्छे मिल सकते है अर्थात उन्होने
शतमिक्रम शक्ति की दवाओं को बनाने के लिये एक भाग मूल औषधि में 99 भाग अनौषधिकृत
वस्तु को मिला कर सौ झटके दिये ,इस शक्ति को उन्होने 1सी पोटेशि कहा इसी 1सी
शक्ति की एक भाग में 99 भाग अनौषधिकृत वस्तु को मिलाकर सौ झटके देने से आगे के
क्रम तैयार होते गये, उन्होने प्रारम्भ में 30 शक्ति फिर 200 एंव 500 शाक्ति की
औषधियॉ तैयार की जिसके परिणाम काफी उत्साहवद्धर्क प्राप्त होते गये, इन्ही
परिणामों ने आगे चलकर उन्हे 50 मिलेसिमल शक्ति के लिये प्रेरित किया ।
होम्योपैथिक के दो मूल सिद्धान्त जो इस
चिकित्सा पद्धति का मूल आधार है डॉ0 हैनिमैन सहाब को प्राप्त हो चुके थे जो निम्नानुसार
है ।
1-सम से सम
कि चिकित्सा का सिद्धान्त
2-औधियों के शक्तिकरण
का सिद्धान्त
1-सम से सम
कि चिकित्सा का सिद्धान्त :- होम्योपैथिक चिकित्सा का मूल सिद्धान्त
है सम से सम का शमन [Similia Similibus Curenture] अर्थात रोगी
के शरीर में जैसे लक्षण हो उसी प्रकार के लक्षणों को उत्पन्न करने वाली दवा ही
उसके रोग की मूल औषधि होगी । यहॉ पर हम कुछ उदाहरणों से कुछ रोग लक्षणों एंव
औषधियों की स्थिति को समक्षने का प्रयास करेगे । यहॉ पर एक वस्तु है मिर्ची जिसे
होम्योपैथिक में केप्सिकम दवा के नाम से जानते है । इसके मूल रूप में सेवन करने
पर मुंह में जलन होने लगती है , यह इस वस्तु का अपना धर्म गुण है ,परन्तु इसका
दुसरा प्रभाव यह होता है कि सीने में जलन होने लगती है ,इसी प्रकार के लक्षणों में
यदि रोगी को सीने में जलन हो तो उसकी दवा मिर्ची से बनी दवा कैप्सिकम होगी । इसी
प्रकार दूसरी वस्तु है प्याज, होम्योपैथिक में प्याज से बनी दवा को एलियम
सीपिया कहते है । प्याज को काटने पर या इसके मूल रूप में सेवन करने पर इसका भौतिक
प्रभाव यह होता है कि ऑखों, व नॉक से पानी
आने लगता है ,कुछ जलन जैसी स्थिति भी उत्पन्न होने लगती है ,इस प्रकार के
लक्षणों पर प्याज से बनी दवा एलियम सीपियॉ दवा का प्रयोग करना चाहिये , तम्बाखू
भी एक वस्तु है एंव इससे भी होम्योपैथिक दवा टोबेकम बनाई जाती है । इसका प्रयोग
यदि एक स्वस्थ्य व्यक्ति करे तो उसे घबराहट ,चक्कर तथा शरीर में पसीना आने
लगता है यहॉ तक कि उसे उल्टी भी हो सकती है इसी प्रकार के मिलते जुलते लक्षणों पर
टोबेकम दवा का प्रयोग किया जा सकता है चूंकि उक्त वनस्पतियों से बनी दवाओं या
वस्तुओं के उदाहरण आप को होम्योपैथिक दवाओं के लक्षणों को समक्षने की सुविधा के
अनुसार दिये गये है , चूंकि होम्योपैथिक
में इसी प्रकार की बहुत सी वस्तुऐ है जिसे पोटेंशराईड कर होम्योपैथिक दवाये बनाई
जाती है । होम्योपैथिक दवाओं की संख्या हजारों की संख्या में है जिसमें वनस्पतियों
से लेकर धातु ,जान्विक ,किटाणुओं यहॉ तक कि प्राणीयों के शरीर के तत्वों,
एलोपैथिक दवाओं,आयुर्वेदिक दवाओं,तथा रस रसायनों आदि से भी होम्योपैथिक दवाओं का
निर्माण किया जा रहा है । भविष्य में होम्योपैथिक दवाओं की संख्या और भी बढ
सकती है । यहॉ पर यह कहने में किसी प्रकार की अतिश्योक्ति नही होगी की भविष्य
में इस बृहमाण्ड में जितनी भी वस्तुये है उनके प्राणी शरीर में उत्पन्न भौतिक
लक्षणों के आधार पर रोग निवारण हेतु होम्योपैथिक दवाये बनाई जायेगी एंव जो रोग
निवारण हेतु एक मील का पत्थर साबित होगे ।
2-औधियों के
शक्तिकरण का सिद्धान्त :- होम्योपैथिक औधियों को शक्तिकरण के लिये मूलत: दो सिद्धान्त
प्रचलन में है , परन्तु डॉ0 हैनिमैन ने अपने अन्तिम समय में पचारस हजारवी
शक्तिक्रम का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था जिसका प्रयोग बहुत ही कम चिकित्सकों
द्वारा किया जा रहा है ।
(अ)दशमिक
क्रम प्रणाली :- दशमिक क्रम प्रणाली की शक्तिकृत दवा वैसे तो विचूण के रूप में
बनाई जाती है जिसमें एक भाग मूल औषधि में नौ भाग शुगर आफ मिल्क (अनौषधिकृत वस्तु,
व्हीकल) को मिलाकर उस सौ बार खरल करने से 1-एक्स शक्ति की दवा बनती है , प्राप्त
हुई इसी 1-एक्स शक्ति के एक भाग में पुन: 9 भाग अनौषधिकृत (व्हीकल) को मिला कर
उसे सौ बार खरल करने से 2-एक्स शक्ति (पोटेंशि) की दवा तैयार की जाती है । इसी
प्रकार 2-एक्स शक्ति की दवा के एक भाग को लेकर उसमें 9 भाग अनौषधिकृत वस्तु को
मिलाकर सौ बार खरल करने पर 3-एक्स पोटेंशी की दवा तैयार होती है ,इसी प्रकार
प्रत्येक आगे की शक्तिकृत दवाओं को बनाया जा सकता है । इस शक्तिकृम की दवाओं को
दिन में तीन बार प्रयोग किया जा सकता है ।
(ब) शतमिक क्रम प्रणाली :- शतमिकक्रम शक्ति
की दवाओं को बनाने के लिये एक भाग मूल औषधि में 99 भाग अनौषधिकृत वस्तु को मिला
कर सौ झटके देने से 1-सी पोटेशी की दवा तैयार होती है , इस 1-सी शक्ति की दवा के
एक भाग में 99 भाग अनौषधिकृत वस्तु को मिलाकर सौ झटके देने से 2-सी शक्ति की दवा
तैयार होती है ,अब इस 2-सी के एक भाग में पुन: 99 भाग अनौषधिकृत वस्तु को मिला कर
सौ झटके देने पर 3-एक्स शक्ति की दवा तैयार होगी , इसके आगे की पोटेंशी को बनाने
के लिये उसके एक भाग को लेकर उसमें 99 भाग अनौषधिकृत वस्तु को मिलाकर सौ झटके
देते जाने से आगे के क्रम तैयार होते जायेगे, इसे आप 30 शक्ति से लेकर 200 एंव 500 एंव सी0 एम0 एंव एम0 एम0 शक्ति की औषधियॉ
तैयार कर सकते है । शतमिक क्रम की शक्तिकृत दवाओं का प्रयोग 30 पोटेंशी में दिन
में तीन बार किया जाता है । 200 पोटेंशी की दवा का प्रयोग सप्ताह में एक बार तथा
500 (1-एम) शक्ति की दवा का प्रयोग पन्द्रह दिन में एक मात्र ,तथा इससे उच्च
शक्ति का प्रयोग माह में एक बार एक मात्रा का प्रयोग किये जाने का प्रावधान है,
परन्तु यह चिकित्सकों के अनुभव व रोग स्थिति पर निर्भर करता कभी कभी हमने अपने
अनुभवों में यह महसूस किया जिसमें कई रोगीयों को 200 या 1-एम शक्ति की दवा दो या तीन तीन दिनों के अन्तर से एक मात्रा देने
की आवश्यकता पडी । कई प्रकरणों में हमने रोगी के लक्षणों के अनुसार सुनिर्वाचित
औषधिय की 200 पोटेंशी की दवा रोगी को दी और यह कहॉ कि जब तक आराम हो इस 200 शक्ति
की दवा का प्रयोग न करे कुछ रोगीयों को दो दिन तो कुछ रोगीयों को तीन या चार दिन
बाद रोग का पुन: आक्रमण हुआ, अत: उस रोगी को जिसके रोग का आक्रमण जितने अंतराल से हुआ वही उस दवा की
शक्ति उस रोगी के लिये उपयुक्त होगी । चिकित्सा कार्य अवधी में मैने महसूस किया
कि उच्च से उच्चतम शक्तिक्रम की दवाओं का जो अन्तराल रोगी के औषधिय देने के बाद
रोग दुबारा आक्रमण पर निर्भर करता है । इस अन्तराल व औषधिय की शक्ति के प्रयोग से
यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि अलग अलग बीमारीयों में व रोगीयों में उच्च से
उच्चतम शक्ति के अन्तराल का निधारण रोग व रोगी की स्थिति पर र्निभर करता है ।
यहॉ पर आप के मन में एक बात आ रही होगी कि इस तरह से उच्च से उच्चतम शक्ति की
दवाओं को कब तक दोहराना चाहिये । तो यहॉ पर मै एक बात और भी स्पष्ट कर देना उचित
समक्षता हूं जो चिकित्सा कार्य के दरबयान मैने महसूस किया है जैसे मैने किसी मरीज
को र्दद की कोई दवा उच्च से उच्चतम शक्ति की दवा दिया उसका र्दद पहले दो दिन तक
ठीक रहा दो दिन बाद उसे वही शक्ति की दवा दोहराई गयी इसका परिणाम यह हुआ कि उसने
बतलाया कि उसका र्दद चार दिन बाद पुन: चालू हुआ पुन: उसी वही पोटेशी की दवा दोहराई
गयी , इसके बाद वही रोगी कहता है कि इस बार उसका र्दद सात दिनों तक ठीक रहा ,पुन:
वही दवा वही पोटेंशी में देने पर उसने कहॉ कि उसका र्दद एक माह तक ठीक रहा अर्थात
दवा देने का अंतराल बढता चला गया और एक समय ऐसा आता है कि रोगी कहता है कि उसका
र्दद तो पूरी तरह से ठीक हो गया यहॉ पर दो स्थिति स्पष्ट हो जाती है, एक तो दवा
की शक्ति व अन्तराल, दुसरा उसी शक्तिक्रम की दवा को उसके द्वारा रोग आक्रमण के
पुन: लौटने के अन्तराल को बढाते जाने से एक समय ऐसा आया जब रोग पूरी तरह से ठीक
हो गया । अर्थात चिकित्सक को उच्च या उच्चतम शक्ति की दवा को देने के बाद रोग
आक्रमण के अन्तराल को गंभीरता से समक्षना चाहिये बार बार दवा बदलने या पोटेंशी
बदलते जाने से कभी कभी उचित परिणाम नही मिलते ।
(स) 50
मिलेसिमल पद्धति :- डॉ0 हैनिमैन सहाब ने अपने अन्तिम समय में 50 हजारवी
शक्तिकृम की दवाओं के उपयोग का सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था । 50 हजारवी
शक्तिक्रम सिद्धान्त वह पद्धति है जिसमें होमियोपैथीक की दशमिक व शतमिकक्रम
प्रणाली से भी अधिक कार्य करने की क्षमता होती है । होम्योपैथिक के आविष्कारक
डॉ0हैनिमैन ने स्वयं जब होमियोपैथी का आविष्कार किया था ,तब इस बात की खोज की थी
की मूल औषधियों की अपेक्षा शक्तिकृत दवाये तेजी से कार्य करती है बाद में अपने
अन्तिम समय में उन्होने स्वयं आर्गेनन में इस 50 हजारवी शक्ति का उल्लेख किया
था , चिकित्सकों के समक्ष कभी कभी कई ऐसी परिस्थितियॉ आ जाती है जब वे
होमियोपैथिक के विधान के अनुसार रोग निदान हेतु सुनिर्वाचित औषधियों का प्रयोग
करते है परन्तु अपेक्षित परिणाम नही मिलते , ऐसी स्थितियों में कभी कभी वे शतमिक
क्रम प्रणाली की उच्चतम शक्ति 10 या सी0 एम0 , एम0 एम0 का भी प्रयोग करते है परन्तु
लाभ नही होता । फिर इन उच्च से उच्चतम शक्तियों के साथ एक समस्या भी उत्पन्न
हो जाती है कि इन शक्तियों को बार बार व जल्दी जल्दी दोहराया नही जा सकता ऐसी
परिस्थितियों में चिकित्सक के समक्क्ष एक बडी समस्या खडी हो जाया करती थी ।
पचास हजार शक्ति क्रम की औषधियोंके साथ प्राय: यह समस्या उत्पन्न नही होती और
इन औषधियों को आवश्यकता अनुसार व रोग स्थिति के अनुसार दोहराया जा सकता है इन
दवाओं को दिन में दो या तीन बार अथवा कुछ मिनटों के अन्तर से भी दिया जा सकता है
जबकि इस स्केल की दवाओं की शक्ति होमियोपैथी की शतमिक क्रम प्रणाली की शक्ति से
50 हजारवे क्रम में होती है व उच्चतम शक्ति होने के कारण इनमें द्रुत गति से
कार्य करने की शक्ति होती है । इस पद्धति की दवाओं की शक्ति के संकेत 0/1, 0/2,
0/3 आदि स्केल में लिखी जाती है ।
डॉ0 सत्यम सिंह चन्देल बी0एच0एम0एस0
डॉ0 सत्यम सिंह चन्देल बी0एच0एम0एस0
ईमेल- jjsociety1@gmail.com
मो0-9300071924
9630309033
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