विश्व प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों का उदभव
आदिकाल में मानव की आवश्यकता थी अपनी
क्षुधा की तृप्ती, आदिमानव यहॉ वहॉ फल फूल या जानवरों का कच्चा मांस खा कर पेट
भर लिया करता था, धीरे धीरे उसने फल तथा वृक्षों को पहचानना शुरू किया , वह यह
समक्षने लगा कि किस वृक्ष का फल मीठा, कडुआ, कसैला या जहरीला, मादक है कहने का
अर्थ वह वनस्पतियों के गुणधमों को पहचानने लगा था । आग से वह डरता था , परन्तु
जब उसने उसके महत्व को समक्षा तब वह धीर धीरे सभ्यता की ओर बढने लगा । उसने समूह
में रहना सीखा, पेड पौधे के गुणों से परिचित होने से उसका उपयोग करने लगा । किसी
भी प्रकार की प्राकृतिक अपदा या बीमारीयों के फैलने को वह दैवी प्रकोप ,या दुष्ट
आत्मा का प्रकोप समक्षता था ।
आज से कई हजार वर्ष पूर्व जब रोमन सभ्यता का
विकास शुरू हुआ यूरोप के सभी देश अज्ञानता तथा असभ्यता के अंधकार में डूंबे हुऐ
थे , किसी के बीमार हो जाने पर कई प्रकार से झांड फूंक जादू टोना का सहारा लिया
जाता था उनका मानना था कि यह बीमारी किसी दैवीय
शक्ति ,जादू टोना इत्यादि के
कारण है , झांड फूंक की प्रक्रिया बडी ही उपेक्षित एंव बर्बरतापूर्ण थी ,रोगी को
मारा पीटा ,तथा विभिन्न किस्म की यातनाये दी जाती थी उनका मानना था कि किसी
देवीय प्रकोप , दुष्ट आत्मा या भूत प्रेत का प्रकोप रोगी के शरीर में है जिसे
शरीर से भगाना आवश्यक है जो प्रताडना दी जा रही है वह रोगी को नही बल्की उसके
शरीर में निवास कर रही दुष्ट आत्मा कों दी जा रही है , आत्माये अच्छी और एंव
दुष्ट प्रवृति की होती है ,इतने पर भी रोगी यदि ठीक नही होता तो उसे असाघ्य
समझकर छोड दिया जाता । संक्रामक या अज्ञयात बीमारीयों के फैलने पर रोगग्रस्त रोगी
को अन्य स्वस्थ्य व्यक्तियों से अलग थलक कर दिया जाता या कभी कभी ऐसे व्यक्तियों
को समय से पहले मार कर उसे जमीन में गढा दिया जाता या उसे जला दिया जाता था ताकि
बीमारी अन्य स्वस्थ्य व्यक्तियों में न फैले । पाषाण युग के प्राप्त अवशेषों
से यह संकेत मिलता है कि उस युग में लोग प्रेत विद्या को अधिक महत्व देते थे
उपचार हेतु पत्थरों के उपकरणों से अप्रेशन इत्यादि के भी प्रमाण मिले है ,जो
अवैज्ञानिक तथा अत्याधिक अपरिष्कृत रूप में थे । चीन,मिस्त्र,यूनान के प्राचीन
ग्रन्थों में मिलने वाले प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि वे उस काल में प्रेतों
एंव दुष्ट आत्माओं के प्रभावों को रोग का करण मानते एंव झांड फूंक द्वारा उपचार
किया करते थे लगभग 860 ई0 पूर्व यूनान में मानसिक रोगियों के उपचार के लिये
प्रार्थना एंव मन्त्रोंपचार का सहारा लिया जाता था ।
(अ)-आधुनिक
चिकित्सा एलौपैथी :- हिपोक्रेटिस (450-460 ई0 पू0) अज्ञानतापूर्ण
अंधविश्वास के बातावरण में जन्में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के जनक हिपोक्रेटिस
ने रोगियों पर घटित होने वाले देवी देवताओं एंव भूत प्रेतों के प्रभावों को अस्वीकार
किया तथा इस बात पर जोर दिया कि रोगियों का उपचार ही इसका विकल्प है उस जमाने में
उपचार धर्म शास्त्रों एंव धर्माचार्यो के हाथों में था इसका विरोध करना सीधे
अर्थो में धर्म का विरोध करना था जिसकी सजा मौत को आमंत्रित करना थी ,परन्तु मानव
हित में किये जाने वाले इन महापुरूषों को मौत का डर नही था उल्लेखनीय है कि हिप्पोक्रेटिस
की उपचार प्रक्रिया वर्तमान समय में अपरिष्कृत होते हुऐ भी उस युग की प्रचलित झाड
फूंक की पद्धिति की तुलना में अत्याधिक विकसित थी, वह शरीर रसों के व्यातिक्रम
को सभी रोगों का कारण मानता था उसका मत था कि जब इन रसों के संयोजन में गडबडी होती
है तभी विभिन्न शारीरिक व मानसिक रोग उत्पन्न होते है जिसका उपचार आवश्यक है ।
हिपोक्रेटिस ही आधुनिक औषधियों व चिकित्सा
विज्ञान (एलौपैथिक) के जन्मदाता माने जाते है ,एलोपैथिक चिकित्सा असदृष्य विधान
पर आधारित चिकित्सा थी , इस चिकित्सा में रोगी का रोग पूरी तरह से नष्ट न होकर
ऊपर से दब जाता था ,उस समय यूरोपवासियों को इनका उपचार एक चमत्कार प्रतीत हुआ ,
जो अंधविश्वास में डूबे हुऐ थे धीरे धीरे इस असदृष्य विधान का काफी विस्तार तथा
प्रचार प्रसार होता गया इसमें औषधि उपचार एंव शाल्य चिकित्सा दोनों शामिल थें ।
हिपोक्रेटिस के बाद इस सम्बन्ध में जिन जिन
दवाओं व उपचार का प्रयोग होता गया उनके गुणों प्रयोग के बारे में जानकारी
लिपिवृद्ध होती गयी जिसने मेटेरिया मैडिका का रूप ग्रहण किया इस चिकित्सा विज्ञान
ने शवों के चीर फाड ,शाल्य क्रिया में निश्चय ही सफलता प्राप्त की एंव चिकित्सा
जगत को बहुमूल्य ज्ञान दिया । इस विकास क्रम में कीटाणुओं पर प्रयोग भी हुऐ
,भौतिक कीटाणुओं के कारण ही सारे रोग उत्पन्न होते है इस सिद्धान्त को मान्यता
प्राप्त होते ही उस समय के सभी एलोपैथिक चिकित्सक इन्ही किटाणुओं का अघ्ययन
तथा अनुसंधान करने लग गये , इस चिकित्सा पद्धति ने सबसे अधिक उन्नती की एंव
शासकीय संरक्षण प्राप्त होने के कारण विभिन्न देशों में इसका पूर्ण विकास हुआ ।
भारतवर्ष में प्रचलित आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति भी अपनी उन्नती के शिखर पर थी
परन्तु विदेशी आक्रमणकारियों ने इसके बहुत से गृन्थों को अपने साथ ले गये ।
यूनानी चिकित्सा प्रणाली बहुत कुछ भारतीय आयुर्वेद के चरक गृन्थों से मिलती
जुलती चिकित्सा थी ।
15 वी शताब्दी के अन्त तक भूत प्रेत
विद्याओं पर विश्वास किया जाता रहा है । मार्टिन लूथर 1483-1546 जैसे व्यक्ति भी
इन विचारों से ग्रसित थे । 16 वी तथा 17 वी शताब्दी के आस पास औषधि विज्ञान का
विकास हुआ ।
(ब)-पैरासेल्सस
1493-1541 :- 15वी शताब्दी के अन्त में मध्यकालीन प्रेत विद्या जो
धर्मशास्त्रों का अभिन्न अंग थी , उसके विरोध में आवाज उठाना याने जीवन को खतरे
में डालना था ,इसके बाबजूद भी कई वैज्ञानिकों,चिन्तकों ने इसके विरूद्ध समय समय
पर आवाज उठाई और दंड तथा उपेक्षाओं का शिकार हुऐ । पैरासेल्सस ने भी प्रेत विद्या
को अस्वीकार किया एंव उन्होने कहॉ कि शारीरक रोगों का एंव मानसिक रोगों का उपचार
न तो धर्म पर आधारित है न ही जादू टोना पर ऐसे रोगियों का चिकित्सकीय उपचार किया
जाना चाहिये ।
स्विजर लैण्ड में जन्में इस पैरासेल्सस ने
शरीर में चुम्बकत्व के विचारों को प्रतिपादित किया जो आगे चलकर सम्मोहन के रूप
में विकसित हुई तथापि वह मानसिक रोगों पर नक्षत्रों के प्रभावों को स्वीकार करता
था , उसका मत था कि चन्द्रमा मस्तिष्क पर प्रभाव डालता है । पन्द्रहवी शताब्दी
के इस प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने अपनी पुस्तक में दो सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया
था ।
1- वनस्पति जगत में विद्युत शक्ति विद्यमान
होती है ।
2-समता से समान का निवारण ।
पैरासेल्सस के दो सिद्धन्तों से दो चिकित्सा
पद्धतियों का उद्भव :- डॉ0 सर सैमुअल हैनिमैन ने 18 वी सदी
में सन् 1796 ई0 में पैरासैल्स के दूसरे सिद्धान्त समता से समता का निवारण के
आधार पर एक अलग चिकित्सा पद्धति को जन्म दिया जो (सम: सम शमियते अर्थात सम
औषधियों से सम रोगों का निवारण करना ) होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति के नाम से
प्रचलित है । वही इसके दुसरे सिद्धान्त वनस्पति जगत में विद्युत शक्ति विद्यमान
होती है के सिद्धान्त पर डॉ0 काऊन्ट सीजर मैटी ने 1865 ई0 मे हैनिमैन की मृत्यू
के 22 वर्षो बाद इलैक्ट्रो होम्योपैथिक नामक चिकित्सा विज्ञान का आविष्कार
किया । इन दोनों चिकित्सा पद्धतियों का अलग से वर्णन किया जायेगा ।
(स)-मेस्मर
(1734-1815 ) मेस्मर आस्ट्रिया निवासी बनदाम मनोचिकित्सक थे पर 16 वी सदी
के विचारक पैरासेल्सस का उन पर बहुत अधिक प्रभाव पडा था ,जिसने मानव स्वास्थ्य
पर नक्षत्रों के प्रभाव को स्वीकार किया था उसका मत था कि नक्षत्र शरीर के प्रत्येक
भाग विशेषकर स्नायुमण्डल पर विशेष प्रभाव डालते है ,यह प्रभाव शरीर में
सार्वभौमिक चुम्बकीय द्रव द्वारा डाला जाता है इस द्रव की क्रिया में वृद्धि अथवा
कमी होने पर आकृषण शक्ति संयोग ,लचीलापन,चिडचिडापन तथा विद्युत शक्ति उत्पन्न
होती है । मेस्मर का मत था कि सभी व्यक्तियों में चुम्बकीय शक्ति विद्यमान है
जिसका प्रयोग अन्य व्यक्तियों में चुम्बकीय द्रव्य के वितरण को प्रभावित करने
हेतु किया जा सकता है ।
(द)-जोहन
बेयर:- (1515-1588) जोहनबेयर एक जर्मन चिकित्सक
थे एंव आधुनिक मनोविज्ञान के संस्थापक कहे जाते है ,क्योकि आप ने मानसिक रोगों
के इलाज में विशेष दक्षता प्राप्त की थी चूंकि उस जमाने में उपचार प्रक्रिया एंव
खॉस कर मानसिक रोगीयों का इलाज चर्च एंव धर्माचायों के द्वारा किया जाता था ,इसके
विरोध के परिणाम में उनके ग्रन्थों के पढने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था यह
प्रतिबंध 20 वी सदी तक चला ।
18वी शताब्दी के आस पास ही शरीर शास्त्र ,स्नायु
शास्त्र,रसायन शास्त्र तथा भौतिक एंव औषधि विज्ञान ने अत्याधिक तेजी से विकास
किया शाल्य चिकित्सा ने भी अपने पैर जमाना प्रारंभ कर दिया था । हिपोक्रेटिसस की
देन आधुनिक चिकित्सा (एलोपैथिक) जो असदृष्य विधान पर आधारित थी ,इसने दिन दूनी
रात चौगनी उन्नती की शाल्य चिकित्सा ,औषधि विज्ञान,सभी पर अनुसंधान एंव परिक्षण
हुऐ ,इस आधुनिक चिकित्सा पद्धति को सिस्टम आफ मेडिसन कहॉ जाता था । सर्वप्रथम
एलोपैथिक शब्द का प्रयोग इस पद्धति के लिये डॉ0 फैडरिक हैनिमैन(होम्योपैथिक के
जन्मदाता) ने किया जो उस जमाने के प्रसिद्ध आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (एलोपैथिक)
के सफल चिकित्सक थे । उस जमाने में लिपजिंग ही एलापैथिक चिकित्सा का एक प्रमुख
केन्द्र माना जाता था , लेकिन एलोपैथिक चिकित्सा का सबसे बडा केन्द्र वियना था
इस आधुनिक चिकित्सा पद्धति जिसे एलोपैथिक चिकित्सा के नाम से जाना जाता है पश्चात
देशों में इसे पूर्व से ही शासकीय संरक्षण व मान्यता मिल चुकी थी । स्वतंत्र
भारत में इसे भारतीय आर्युविज्ञान के नाम से भारतीय आर्युविज्ञान अधिनियम 1956
पारित कर इसे 30 दिसम्बर 1956 सम्पूर्ण भारतवर्ष में लागू किया गया । जिसमें
चिकित्सकों को चिकित्सा कार्य हेतु मान्यता तथा इस पैथी की शिक्षा पाठयक्रम के
संचालन की प्रक्रियाओं पर विधान बनाकर मान्यता प्रदान की गयी ।
2-आयुर्वेद
चिकित्सा पद्धति :- यह चिकित्सा पद्धति
सर्वप्रथम चिकित्सा पद्धति थी , जो आदिकाल से रोग निदान हेतु भारतवर्ष में
प्रचलित रही है । इसीलिये कहॉ गया है कि आयुर्वेद अनादि ज्ञान है ,जिसने सृष्टि की
रचना के पूर्व ही बृम्हाजी ने स्मरण करके लोक कल्याण के लिये आयुर्वेद की उत्पति
की इसकी उत्पति के तीन रूप है ।
1-सुश्रुत संहिता –भगवान इन्द्र से धन्वंतरी (दिवोदास काशीराज) ने
आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था शाल्यतंत्र तथा अष्टॉग का प्रचार हुआ ।
2-चरक संहिता –इन्द्र ने भारद्वाज,भारद्वाज से आत्रेय, पुनर्वसु, अग्निवेश, भेड,
जतुकर्ण, क्षारपाणी, आदि ने आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया
3- कश्यप संहिता –इन्द्र से कश्यप,वशिष्ठ,अत्रि भ्रगु ने
आयुर्वेद सीखा
पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से भगवान
धनवंतरी बारह रत्नों के साथ प्रगट हुये तब से आयुर्वेद के विद्वानो ने आयुर्वेद
का प्रचार प्रसार किया एंव लम्बे समय से विद्वान वैद्य इस चिकित्सा पद्धति को
चिकित्सा उपचार हेतु करते आ रहे है । भारतवर्ष में इस चिकित्सा पद्धति को शासकीय
मान्यता से पूर्व अवैज्ञानिक तथा तर्कहीन उपचार कह कर इसकी उपेक्षा की जाती रही
,इसके बाद भी आयुर्वेद में आस्था रखने वाले विद्वाना बैद्यों ने इसकी शिक्षण संस्थाये
जारी रखी और अपनी चिकित्सा पद्धति की मान्यता हेतु संर्धष करते रहे सन् 1920 ई0
में आल इंडिया कॉग्रेस ने अपने नागपुर अधिवेशन में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को
शासकीय मान्यता देने के सम्बन्ध में कमेटी गठित की चूंकि यूनानी चिकित्सा
पद्धति प्राचीन आयुर्वेद चिकित्सा पर आधारित थी । लार्ड ऐपथिल ने कहॉ था कि
आयुर्वेद भारत से अरब फिर वहॉ से यूरोप गया अरब खलीफाओं ने आयुर्वेद के ग्रन्थों
का अरबी में अनुवाद कराया अर्थात आयुर्वेद एंव यूनानी चिकित्सा पद्धतियॉ बहुत कुछ
मिलती जुलती चिकित्सा है । भारत में एलोपैथिक को मान्यता पूर्व में प्राप्त हो
चुकी थी ,परन्तु आयुर्वेद के मान्यता का अहम सवाल शासन के समक्ष कई कमेटियों के
बीच धूमता रहा छात्र और चिकित्सक मान्यता प्राप्ती की प्रतीक्षा में संर्धष
करते रहे । 21 दिसम्बर 1970 को इसे शासन द्वारा मान्यता दी गयी एंव इसका अधिनियम
बना जिसमें अष्टॉग आयुर्वेद सिद्ध यूनानी चिकित्सा पद्धति एंव प्राकृतिक चिकित्सा
पद्धति को रखा गया जो भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद अधिनियम 1970 कहलाता है ।
जिसके द्वारा आयुर्वेदिक यूनानी एंव प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियो को अधिनियमित कर
उसके संचालन रजिस्ट्रेशन इत्यादि का दायित्व सौपा गया ।
3-होम्योपैथिक
चिकित्सा पद्धति:- होम्योपैथिक का नाम लेते
ही मीठी मीठी शक्कर की गोलियो की याद आ जाती है इस चिकित्सा पद्धति के जन्मदाता
डॉ0 फैरेडिक सैमुअल हैनिमैन (जर्मन) थे । अपने एलोपैथिक से सन् 1779 में एम0डी0 की
एंव शासकीय चिकित्सक बन कर लोगों की एलोपैथिक से चिकित्सा कार्य करते रहे, वे
अपने समय के एक सफल एलोपैथिक चिकित्सक थे ,परन्तु उन्होने अपने चिकित्सा के
दौरान एलोपैथिक के दुष्परिणामों को देखा, जिसमें कई रोगी, जो रोग है उससे तो ठीक
हो जाते है परन्तु औषधियजन्य रोगों की चपेट में आ जाते है और कभी कभी तो यही
औषधिजन्य रोग उनकी मौत का करण होती थी ,उनका मन इस एलोपैथिक चिकित्सा से भर गया
एंव उन्होने इस प्रकार की चिकित्सा पद्धति से धनोपार्जन के कार्यो को छोड दिया
एंव जीवकापार्जन हेतु पुस्तकों का अनुवाद कार्य करने लगे चूंकि उन्हे कई भाषाओं
का ज्ञान था चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकों के अनुवाद करते समय एलोपैथिक
मेटेरिया मेडिका में पढा कि सिनकोना कम्पन्न ज्वर अर्थात ठण्ड लग कर आने वाले
बुखार को दूर करती है , और इसी के सेवन से कम्पन्न ज्वर उत्पन्न हो जाता है,
अर्थात एक ही औषधि से दो प्रकार के विपरीत परिणमों ने उन्हे विचार करने पर मजबूर
कर दिया, एक ही औषधि के दो विपरीत परिणमों ने एक नई चिकित्सा होम्योपैथिक के
आविष्कार का सूत्रपात किया । हैनिमन सहाब ने सिनकोना के परिणामों का परिक्षण करने
के उद्धेश्य से स्वयं सिनकोना का सेवन किया, इससे उन्हे कम्पन्न ज्वर उत्पन्न
हो गया , और यही औषधि जब कम्पन्न ज्वर से ग्रसित मरीज को दिया गया तो वह ठीक हो
गया, बस यही एक ऐसा सूत्र था, जिसने एक नई चिकित्सा पद्धति का होम्योपैथिक का श्री
गणेश 1716 ई0 में किया । इसी परिक्षण क्रम में उन्होन बहुत सी औषधियों को स्वस्थ्य
व्याक्तियों को दिया एंव जो लक्षण उत्पन्न हुऐ उसे लिपिवृद्ध करते गये, इस
लिपिवृद्ध संगृह को मेटेरिया मेडिका कहॉ गया , जैसे रोगी में रोग के जैसे लक्षण हो
यदि वैसे ही लक्षण स्वस्थ्य व्यक्तियों को दवा देने पर उभरते हो, तो वही उस
रोगी की दवा होगी , अर्थात सम से सम की चिकित्सा का प्रथम सिद्धान्त का उन्होने
प्रतिपादन किया एंव इस नई चिकित्सा का नाम होम्योपैथिक इसी सिद्धान्त के आधार
पर रखा ।
होम्योपैथी शब्द दो शब्दों से
मिलकर बना है, होमियोज और पैथी ,होमियोज ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है
सदृश या समान । पैथी का अर्थ विधान या चिकित्सा ,अर्थात होमियोपैथी से तात्पर्य उस उपचार
विद्या से है जो सदृश विधान पर आधारित हो , अर्थात होमियोपैथक चिकित्सा को सदृश
विधान चिकित्सा ,सम से सम कि चिकित्सा आदि नामों से भी पुकारा जाता है । होम्योपैथिक
में किसी रोग का उपचार न कर रोग लक्षणों का उपचार किया जाता है । हैनिमैन सहाब को
प्रथम सूत्र प्राप्त हो गया था, अब इसका
दूसरा सूत्र, जो रोग उपचार या रोगी के शरीर में उत्पन्न लक्षणों को पूरी तरह से
शमन कर सकती है वह औषधि की कैसी मात्रा या कौन सी शक्ति होगी , इसलिये उन्होन मूल
औषधि को तनुकृत कर शक्तिकरण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया । इसमें मूल औषधि की
मात्रा को जितना तनुकृत या कम किया जाता है एंव उसेमें झटके देने से उसकी पोटेंशी या शक्ति उतनी अधिक बढती जाती है ।
होम्योपैथिक के दो मूल सिद्धान्त
1-सम से सम
कि चिकित्सा का सिद्धान्त
2-औधियों के
शक्तिकरण का सिद्धान्त
हैनीमैन के इस नये आविष्कार का तत्कालीन
चिकित्सकों ने काफी विरोध किया एंव इस चिकित्सा पद्धति को लम्बे समय तक
अवैज्ञानिक एंव तर्कहीन उपचार कह कर नकारा जाता रहा इसके बाद भी इस चिकित्सा
पद्धति पर विश्वास रखने बाले कई चिकित्सकों ने इसका अध्ययन किया एंव इसकी चिकित्सा
कार्य एंव शैक्षिणिक संस्थाओं का संचालन शासकीय मान्यता के अभावों में कई कानूनी
दॉवों पेचों के बीच से गुजरते हुऐ उपेक्षाओं का शिकार होते हुऐ करते रहे । 19 वी
शताब्दी के मध्य भारतवर्ष में होम्योपैथिक चिकित्सा का आगमन सन 1836 में
होनिंग बगैर के माध्यम से भारत के पंजाब राज्य में हुआ । इस चिकित्सा पद्धति का
भारत में लाने का श्रेष्य महाराजा रजीत सिंह को जाता है । जन सामान्य में इसका
प्रचलन ब्रिटिश शासन काल में बंगाल में शुरू हुआ था । भारत में प्रथम चिकित्सक
डॉ0 एम0एल0सरकार थे जिन्होने कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1883 में एम0डी0 की थी
भारत में होम्योपैथिक के अध्ययन की पहली संस्था 1880 में कलकत्ता में स्थापित
की गई शासकीय मान्यता न मिलने पर भी इसकी उपयोगिता को देखते हुऐ कई विद्धवानों ,चिकित्सकों
एंव छात्रों ने इसका अध्ययन किया । अपने अधिकारों के लिये संधर्ष करते हुऐ दिनांक
26 दिसम्बर 1968 को दा इण्डियन मेडिसिन एण्ड होम्योपैथिक सेन्ट्रल कौंसिल बिल
पर विचार किया गया एंव यह पाया गया कि आयुर्वेद सिद्ध युनानी में मूल भूत अन्तर
है । अत: होम्योपैथिक का अलग से केन्द्रीय बोर्ड बनाना चाहिये होम्योपैथिक
एडवाइजर कमेटी जिसे भारत सरकार द्वारा गठित किया गया था 19 दिसम्बर 1973 को केन्द्रीय
होम्योपैथिक परिषद अधिनियम पारित किया गया जिसे सम्पूर्ण भार के राज्यों पर
लागू किया गया । आज होम्योपैथिक चिकित्सा परिषद का केन्द्रीय बोर्ड एंव प्रत्येक
राज्यों में राज्य बोर्ड संचालित है जो इस चिकित्सा पद्धति की शिक्षा का संचालन
एंव चिकित्सकों का पंजियन कार्य कर रही है ।
4-इलैक्ट्रो
होम्योपैथिक :- पैरासेल्सस के प्रथम सिद्धान्त ‘ सम
से सम की चिकित्सा ’ पर डॉ0 हैनिमैन सहाब ने होम्योपैथिक
चिकित्सा का आविष्कार किया, वही उनकी मृत्यु के 22 वर्षो पश्चात सन 1865 ई0
में पैरासेल्सस के दूसरे सिद्धान्त ‘ वनस्पति
जगत में विद्युत शक्ति विद्यमान ’ होती है । इस दूसरे सिद्धान्त पर इलैक्ट्रो होम्योपैथिक का आविष्कार बोलग्ना
इटली निवासी डॉ0 काऊट सीजर मैटी ने किया
था ।
इलैक्ट्रो होम्योपैथिक चिकित्सा
पद्धति के दो सिद्धान्त है
1-वनस्पति जगत में वि़द्धुत शक्ति विधमान होती
है
2- रस और रक्त की समानता एंव शुद्धता
मैटी
सहाब ने हानिरहित वनस्पतियों की वि़द्धुत शक्ति की खोज करते हुऐ 114 वनस्पतियों
के अर्क को कोहेबेशन प्रक्रिया से निकाल कर 38 मूल औषधियों का निर्माण किया जो
मनुष्य के रस एंव रक्त के दोषों को दूर कर उन्हे शुद्ध व
सम्यावस्था करती है , उन्होने उक्त औषधियों के निर्माण में शरीर के अंतरिक
अंगों पर कार्य करने वाली औषधियों के समूह का निर्माण किया जिन्हे आपस में मिला
कर मिश्रित कम्पाऊंउ दवा बनाई गई इस प्रकार इनकी संख्या बढकर कुल 60 हो गयी है ।
इसे सुविधा व कार्यो की दृष्टि से निम्न समूहो
में विभाजित किया जा सकता है । इस विभाजन में मूल औषधियों के साथ मिश्रित किये गये
कम्पाऊड की संख्या भी सम्मलित है ।
1- स्क्रोफोलोसोज :-प्रथम
वर्ग में रस पर कार्य करने वाली मेटाबोलिज्म को संतुलित एंव उसके कार्यो को सामान्य
रूप से संचालित करने वाली एक क्रियामिक औषधिय है जो रस तथा पाचन सम्बन्धित अव्यावों पर कार्य करती है औषधियों को रखा जो स्क्रोफोलोसोज नाम से जानी
जाती है एंव संख्या में कुल 13 है ।
स्क्रोफोलोसो
लैसेटिबों :- इसमें एक दवा स्क्रोफोलोसो लैसेटिबों सम्मलित है इसका कार्य
कब्ज को दूर करना तथा ऑतों की नि:सारण क्रिया को प्रभावित करना है
2-
एन्जिओटिकोज :- दूसरे वर्ग में रक्त पर कार्य करने वाली , औषधियों को रखा जो एन्जिओटिकोज के नाम से जानी
जाती है इस समूह में कुल 5 औषधियॉ है ।
3- लिन्फैटिकोज :-तीसरे
वर्ग में रक्त एंव रक्त दोनो पर कार्य करने वाली औषधियों को रखा गया जो लिन्फैटिकोज
नाम से जानी जाती है इस समूह में 2 औषधियॉ है
4- कैन्सेरोसोज:- चौथे
वर्ग में शरीर पर कार्य करने वाले अवयवों तथा सैल्स एंव टिश्यूज की बरबादी एंव
उनकी अनियमिता से उत्पन्न होने वाले रोगों पर कार्य करती है रखा गया एंव यह कैन्सेरोसोज के नाम से जानी जाती है इस समूह
में कुल 17 औषधियॉ है ।
5- फैब्रिफ्यूगोज
:- पॉचवे वर्ग में वात संस्थान नर्व सिस्टम पर कार्य करती है
इसे फैब्रिफ्यूगोज नाम से जाना जाता है इस समूह में कुल 2 औषधियॉ है ।
6- पेट्टोरल्स
:- छठे वर्ग में श्वसन तंत्र पर कार्य करने वाली औषधियों को रखा
गया जो पेट्टोरल्स के नाम से जानी जाती है एंव संख्या में 9 औषधियॉ है ।
7-वेनेरियोज –सातवे
वर्ग में वेनेरियोज यह औषधिय सक्ष्या में 6 है एंव इसका कार्य रति सम्बन्धित
,मूत्रसंस्थान ,जननेन्दीय पर प्रभावी है जिसका उपयोग रतिजन्य रोगो व जन्नेद्रीय
मूत्र संस्थान सम्बन्धित पर होता है ।
8-वर्मिफ्युगोज
:–‘ इस वर्ग में में वर्मिफ्युगोज दवा का रखा गया जो संख्या में
2 है इस ग्रुप की दवा का प्रभाव विशेष रूप से ऑतों पर है एंव यह शरीर से किटाणुओं व
कृमियों को शरीर से खत्म कर देती है
9- सिन्थैसिस:-
इस
समूह में सिन्थैसिस (एस वाय) है जो एक कम्पाऊड मेडिसन है जिसका उपयोग सम्पूर्ण
शरीर के आगैनन को सुचारूप से संचालित करने हेतु प्रेरित करती है एंव उन्हे शक्ति
प्रदान करती है इसे एस वाई या सिन्थैसिस नाम से जाना जाता है ।
10-इलैक्ट्रीसिटी:- इस
वर्ग में पॉच इलैक्ट्रीसिटी एंव एक तरल औषधिय अकुवा पैरिला पैली (ए0पी0पी) है ।
इसमें पॉच इलैक्ट्रीसिटी एंव एक त्वचा जल सम्मलित है जो क्रमश: निम्नानुसार है
।
1-व्हाईट इलैक्ट्रीसिटी
:-इसे सफेद बिजली भी कहते है , इसकी क्रिया ग्रेट सिम्पाईटिक
नर्व, सोरल फ्लेक्स,लधु मस्तिष्क तथा वात संस्थान के समवेदिक सूत्रों पर है
,इसलिये यह वातज निर्बलता की विशेष औषधिय है ,इसका प्राकृतिक गुण पीडा नाशक,शक्ति
प्रदान करने बाली , नींद लाने वाली वातज पीडा को ठीक करने वाली एंव ठंडक पहुचाने
वाली है । इसका वाह्रय एंव आंतरिक प्रयोग किया जाता है ।
2- ब्लू
इलैक्ट्रीसिटी :-इसे नीली बिजली भी कहते है ,यह रक्त प्रकृति के अनुकूल है
,इसका प्रभाव हिद्रय के बांये भाग पर है यह रक्त के स्त्राव को चाहे वह वाह्रय
स्थान या अंतरिक अवयव से हो उसे रोक देती है ,नीली बिजली क्योकि यह रक्त
नाडियों का सुकोड देती है इससे रक्त स्त्राव रूक जाता है । यह लकवा ,मस्तिष्क
में रक्त संचय ,चक्कर आना ,खूनी बबासीर , या शरीर से रक्त स्त्रावों के लिये
उपयोगी है ।
3-रेड इलैक्ट्रीसिटी:- इसे
लाल बिजली भी कहते है, यह कफ प्रकृति वालों के अनुकूल है इसकी प्रकृति पीडा
नाशक,बल वर्धक उत्तेजक,प्रदाह नाशक, ग्रन्थी रोग नाशक है । इसमें रक्त की मन्द
गति को तीब्र करने का विशेष गुण है ।
4-यलो इलैक्ट्रीसिटी:- इसे
पीली बिजली भी कहते है,यह कफ प्रकृति वालों के अनुकूल है इसकी प्रकृति पीडा नाशक,
रक्त की कमी एंव ऐढन को दूर करने वाली,
कै को रोकने वाली एंव कृमि नाशक है तथा वात सूत्रों को बल प्रदान करने वाली
है । यह औषधिय बल वर्धक है तथा अन्य अपनी सजातीय औषधियों के साथ प्रयोग करने पर
शरीर से पसीना लाने वाली है । वात सूत्रों ,ऑतों,और मॉस पेशियों पर इसका विशेष
प्रभाव है ,मिर्गी,हिस्टीरिया,जकडन,पागलपन इत्यादि में एंव उष्णता को शान्त
करने के लिये इसका प्रयोग होता है ।
5-ग्रीन
इलैक्ट्रीसिटी:-इसे हम हरी बिजली भी कह सकते है ,यह रक्त प्रकृति वालों के
लिये अनुकूल है इसका प्रभाव शिराओं एंव उनकी कोशिकाओं और हिद्रय के आधे दाहिने भाग
की बात नाडियों पर है , इसकी क्रिया त्वचा ,श्लैष्मिककला पर होता है, इसके
प्रयोग से किसी भी प्रकार के धॉव, चाहे वे सडनें गलने लगे हो उसमें इसका प्रयोग
किया जाता है जैसे कैंसर, गैगरीन,दूषित धॉव बबासीर ,भगन्दर के ऊभारों में इसका
प्रयोग किया जाता है । मस्स्ो ,चिट्टे इसके प्रयोग से झड जाते है यह जननेन्द्रिय
या मूंत्र मार्ग से पीव निकलने पर अत्यन्त उपयोगी है । इसके प्रयोग से शरीर के
अन्दर या बाहर किसी भी स्थान पर कैंसर हो जाये तो उसकी पीडा को यह दूर कर देती
है ।
6-अकुआ पर ला
पेली या ए0पी0पी :- इसे त्वचा जल के नाम से भी जाना जाता
है इसका प्रयोग त्वचा को स्निग्ध, मुलायम, चिकनाई युक्त एंव सुन्दर स्वस्थ्य
बनाने तथा त्वचा के रंग को साफ करने के लिये वाह्रय रूप से (त्वचा पर लगाना)
उपयोग किया जाता है । इस दवा को ऑखों के चारों तरफ की त्वचा पर (ऑखों पर नही)
लगाने से ऑखों को शक्ति मिलती है । इसका प्रयोग चहरे व त्वचा को चिकना मुलायम साफ
चमकदार बनाने में तथा दॉग धब्बे झुरियों अथवा मुंहासे,चहरे के ब्लैक हैड, खुजली
,छीजन,त्वचा के रंग में परिवर्तन आदि में किया जाता है ।
है जो अपने रंगों के अनुसार वनस्पितियों से
प्राप्त की गई है एंव इनका कार्य रोगों के निवारण में किया जाता है एंव इसके बडे
ही आशानुरूप परिणाम प्राप्त होते है । इसमें एक त्वचा जल है जो त्वचा को निखरने
एंव त्वचा दोषों पर प्रभावी औषधिय है ।
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